नई दिल्ली । राजद्रोह कानून के मामले को सुप्रीम कोर्ट ने संविधान बेंच को रेफर कर दिया है। चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ बेंच का गठन करेंगे। ये बेंच 1962 के केदारनाथ फैसले की समीक्षा करेगी। केदारनाथ के फैसले में भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए को वैध ठहराया गया था। सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार ने नए प्रस्तावित आपराधिक कानून के पास होने तक इंतजार के लिए कहा। इस पर कोर्ट ने कहा कि नया कानून आ जाने पर भी भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए के तहत दर्ज मुकदमे खत्म नहीं होंगे। इसलिए उसकी वैधता पर सुनवाई ज़रूरी है।
सुनवाई के दौरान केंद्र की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि जल्दबाजी न करें। उन्होंने कहा कि क्या कुछ महीनों का इंतजार नहीं किया जा सकता। पहले की सरकारों के पास बदलाव का मौका था लेकिन वो इससे चूक गए। य़ह सरकार कम से कम सुधार के दौर में है। तब सिब्बल ने कहा कि बुनियादी तौर पर जो गलत है वह यह है कि सरकार के प्रति असंतोष को राज्य के प्रति असंतोष नहीं कहा जा सकता। राज्य सरकार नहीं है और सरकार राज्य नहीं है।
सिब्बल ने कहा कि 1973 में इसे संज्ञेय अपराध बना दिया गया। उससे पहले यह संज्ञेय नहीं था। इसलिए उन्होंने गिरफ़्तारी शुरू कर दी। तब मेहता ने कहा कि हमने इस मामले में विस्तृत नोट दाखिल किया है। इस मामले में अगली सुनवाई की तारीख दी जाए। मेहता ने कहा कि सरकार के शीर्ष स्तर पर इस पर गंभीरता से विचार किया जा रहा है लेकिन सरकार ने कहा कि सभी पक्षों से बात कर ली जाए। इस संदर्भ में सरकार के फैसले का इंतजार किया जाना चाहिए। तब सिब्बल ने कहा कि हम इस पर संसद के कानून बनाने का इंतजार नहीं कर सकते नया कानून कहीं अधिक कठोर है।
सुप्रीम कोर्ट ने 11 मई, 2022 को राजद्रोह के कानून पर केंद्र को कानून की समीक्षा की अनुमति दे दी थी। तत्कालीन चीफ जस्टिस एनवी रमना की अध्यक्षता वाली बेंच ने राजद्रोह के तहत फिलहाल नए केस दर्ज करने पर रोक लगा दिया था। कोर्ट ने कहा था कि अगर किसी पर केस दर्ज हो तो निचली अदालत से राहत की मांग करे। कोर्ट ने लंबित मामलों में कार्रवाई पर रोक लगाने का आदेश दिया था। कोर्ट ने कहा था कि जेल में बंद लोग निचली अदालत में ज़मानत याचिका दाखिल करें।
राजद्रोह के कानून के खिलाफ 12 जुलाई, 2021 को मणिपुर के पत्रकार किशोरचंद्र वांगखेमचा और छत्तीसगढ़ के पत्रकार कन्हैयालाल शुक्ल की ओर से दायर याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता की ओर से वकील तनिमा किशोर ने कहा था कि भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए संविधान की धारा 19 का उल्लंघन करती है। यह धारा सभी नागरिकों को बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है। याचिका में कहा गया था कि केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य के मामले में 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने भले ही कानून की वैधता को बरकरार रखा था लेकिन अब इसके साठ साल बीतने के बाद ये कानून आज संवैधानिक कसौटी पर पास नहीं होता है।
Constitution Bench
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली में ट्रांसफर पोस्टिंग के मामले में केंद्र सरकार के अध्यादेश के खिलाफ दायर याचिका को पांच जजों की संविधान बेंच को रेफर कर दिया है। चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली बेंच ने ये आदेश जारी किया।
सुनवाई के दौरान 17 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने इस बात का संकेत दिया था कि वो दिल्ली में ट्रांसफर पोस्टिंग के मामले में केंद्र सरकार के अध्यादेश के खिलाफ दिल्ली सरकार की याचिका को संविधान बेंच को रेफर कर सकता है। इस मामले में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल किया था। हलफनामा में केंद्र सरकार ने अध्यादेश का बचाव करते हुए कहा था कि संविधान की धारा 246(4) संसद को भारत के किसी भी हिस्से के लिए किसी भी मामले के संबंध में कानून बनाने का अधिकार देता है, जो किसी राज्य में शामिल नहीं है, इसके बावजूद ऐसा मामला राज्य सूची में दर्ज मामला है।
केंद्र ने कहा था कि संसद सक्षम है और उसके पास उन विषयों पर भी कानून बनाने की सर्वोपरि शक्तियां हैं, जिनके लिए दिल्ली की विधान सभा कानून बनाने के लिए सक्षम होगी। केंद्र ने कहा था कि दिल्ली सरकार के मंत्रियों ने सोशल मीडिया पर आदेश अपलोड कर अफसरों के खिलाफ अभियान चलाया। इतना ही नहीं दिल्ली सरकार ने विजिलेंस अफसर को निशाना बनाया और रात 11 बजे के बाद फाइलों को अपने कब्जे में लेने के लिए विजिलेंस दफ्तर पहुंच गए।
हलफनामे में कहा गया था कि दिल्ली सरकार की यह दलील कि अध्यादेश बिना किसी विधायी क्षमता के जारी किया गया है, जो बिल्कुल गलत है। दिल्ली सरकार की तरफ से कानूनी या संवैधानिक आधार पर नहीं बल्कि राजनीतिक आधार पर बेतुका और निराधार दलीलें अध्यादेश के खिलाफ दी जा रही हैं। केंद्र सरकार का कहना था कि अध्यादेश संसद के मानसून सत्र में पेश होने की संभावना है, ऐसे में सुप्रीम कोर्ट को इस मुद्दे पर फैसले के लिए मानसून सत्र के खत्म होने का इंतजार करना चाहिए।
कोर्ट ने 10 जुलाई को केंद्र सरकार और दिल्ली के उप-राज्यपाल को नोटिस जारी किया था। दिल्ली सरकार ने याचिका में केंद्र सरकार के अध्यादेश पर तुरंत रोक लगाने की मांग की है। दिल्ली सरकार ने याचिका में कहा है कि केंद्र सरकार का 19 मई को लाया गया अध्यादेश असंवैधानिक है।
सुप्रीम कोर्ट की संविधान बेंच ने 11 मई को कहा था कि उप-राज्यपाल के पास केंद्रशासित प्रदेश दिल्ली से संबंधित सभी मुद्दों पर व्यापक प्रशासनिक पर्यवेक्षण नहीं हो सकता है। चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय बेंच ने सर्वसम्मत फैसले में कहा है कि उप-राज्यपाल की शक्तियां उन्हें दिल्ली विधानसभा और निर्वाचित सरकार की विधायी शक्तियों में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं देती हैं। यानी दिल्ली सरकार का पुलिस, कानून व्यवस्था और भूमि पर नियंत्रण नहीं है।
कोर्ट ने कहा था कि नौकरशाह इस धारणा के तहत नहीं हो सकते कि वे मंत्रियों के प्रति जवाबदेह होने से अछूते हैं। अगर अधिकारी इस धारणा के तहत मंत्रियों को जवाब नहीं देते हैं तो वे लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार के लिए बेहिसाब हो जाएंगे। कोर्ट ने कहा था कि दिल्ली विधानसभा के पास भूमि, लोक व्यवस्था और पुलिस को छोड़कर सूची 2 में सभी विषयों पर कानून बनाने की शक्ति है।
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान बेंच ने कहा है कि उप राज्यपाल के पास केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली से संबंधित सभी मुद्दों पर व्यापक प्रशासनिक पर्यवेक्षण नहीं हो सकता है। चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय बेंच ने सर्वसम्मत फैसले में कहा है कि उप राज्यपाल की शक्तियां उन्हें दिल्ली विधानसभा और निर्वाचित सरकार की विधायी शक्तियों में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं देती हैं।
कोर्ट ने कहा कि नौकरशाह इस धारणा के तहत नहीं हो सकते कि वे मंत्रियों के प्रति जवाबदेह होने से अछूते हैं। अगर अधिकारी इस धारणा के तहत मंत्रियों को जवाब नहीं देते हैं, तो वे लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार के लिए बेहिसाब हो जाएंगे। कोर्ट ने कहा कि दिल्ली विधानसभा के पास भूमि, लोक व्यवस्था और पुलिस को छोड़कर सूची 2 में सभी विषयों पर कानून बनाने की शक्ति है, लेकिन संसद ने दिल्ली के लिए सूची 2 और सूची 3 विषयों पर विधायी शक्ति को खत्म कर दिया है, जो अन्य केंद्रशासित प्रदेशों से अलग अपनी विशिष्ट स्थिति को देखते हुए है। कोर्ट ने दोहराया कि उप राज्यपाल दिल्ली के मुख्यमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद की सलाह से बंधे हुए हैं।
दिल्ली में अफसरों पर नियंत्रण के मसले पर सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय बेंच ने 14 फरवरी, 2019 को विभाजित फैसला सुनाया था। जस्टिस एके सिकरी और जस्टिस अशोक भूषण के अलग-अलग फैसले के बाद यह मामला 06 मई, 2022 को 5 जजों की संविधान बेंच को रेफर कर दिया था।
‘आप’ ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को ऐतिहासिक बताया
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने अधिकारियों के ट्रांसफर-पोस्टिंग का अधिकार दिल्ली सरकार को दे दिया है। एनसीटी दिल्ली के पास सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस और भूमि को छोड़कर सेवाओं पर दिल्ली सरकार को विधायी शक्ति दी गई है। सभी जजों ने सर्वसम्मति से फैसला सुनाया। कोर्ट की सुनवाई के बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने ट्वीट कर कहा- दिल्ली के लोगों के साथ न्याय करने के लिए सुप्रीम कोर्ट का तहे दिल से शुक्रिया। इस निर्णय से दिल्ली के विकास की गति कई गुना बढ़ेगी।
इसी क्रम में राज्यसभा सांसद संजय सिंह व राघव चड्ढा ने फैसले के बाद खुशी जताई है। उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखा कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के लंबे संघर्ष के बाद जीत मिली है। उन्होंने इस जीत पर केजरीवाल के जज्बे को सलाम किया। उन्होंने कहा कि दिल्ली की दो करोड़ की आबादी को इस फैसले की बधाई।
‘आप’ के इन नेताओं ने जताई खुशी
दिल्ली की शिक्षा मंत्री आतिशी ने भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर खुशी जताई है। उन्होंने ट्ववीटर पर सत्यमेव जयते लिखते हुए कहा कि आखिरकार लंबी लड़ाई के बाद दिल्ली की जनता की ओर से लड़ते हुए अरविंद केजरीवाल को विजय मिल गई है। मुख्यमंत्री ने सरकार को उसका हक दिलवाया है। दिल्ली की जनता के काम में अब कोई अड़ंगा नहीं लगा पाएगा। ये ऐतिहासिक निर्णय दिल्ली की जनता की जीत है। अब दिल्ली दुगनी गति से तरक्की करेगी।
आम आदमी पार्टी के वरिष्ठ नेता एवं कैबिनेट मंत्री सौरभ भारद्वाज ने कहा कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने आठ साल तक दिल्ली की जनता के लिए लड़ाई लड़ी। आखिरकार आज जनता जीत गई हैं।
आम आदमी पार्टी के विधायक सोमनाथ भारती ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर प्रतिक्रिया दी। उन्होंने कहा कि आज दिल्ली और दिल्ली वासियों के लिए बड़ा दिन है। दिल्ली को अब ऊपर से थोपे गए लोगों से मुक्ति मिलेगी और दिल्ली के लिए दिल्ली वासियों द्वारा चुनी गई सरकार फैसला कर सकेगी।
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली बेंच शिवसेना मामले पर 11 मई को फैसला सुनाएगी। इस बेंच में शामिल जस्टिस एमआर शाह 15 मई को रिटायर हो रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान बेंच ने इस मामले पर नौ दिन सुनवाई के बाद 16 मार्च को फैसला सुरक्षित रख लिया था।
सुनवाई के दौरान कोर्ट ने इस बात पर सवाल उठाया था कि अगर शिंदे गुट के विधायकों को उद्धव के कांग्रेस-एनसीपी से गठबंधन पर एतराज था, तो वह तीन सालों तक सरकार के साथ क्यों रहे। कोर्ट ने शिवसेना विवाद मामले में महाराष्ट्र के राज्यपाल पर भी सवाल उठाया था। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में राज्यपाल की भूमिका को लेकर चिंता जताते हुए कहा था कि राज्यपाल को इस तरह विश्वास मत नहीं बुलाना चाहिए था।
कोर्ट ने कहा था कि नया राजनीतिक नेता चुनने के लिए फ्लोर टेस्ट नहीं हो सकता है। कोर्ट ने कहा था कि किसी पार्टी में नीति संबंधी मतभेद है, तो क्या राज्यपाल विश्वास मत हासिल करने को कह सकते हैं। चीफ जस्टिस ने कहा था कि उनको खुद यह पूछना चाहिए था कि तीन साल की सुखद शादी के बाद क्या हुआ। उन्होंने कहा था कि राज्यपाल ने कैसे अंदाजा लगाया कि आगे क्या होने वाला है।
सुप्रीम कोर्ट ने 22 फरवरी को शिवसेना के चुनाव चिह्न के मामले में निर्वाचन आयोग के आदेश पर रोक लगाने से इनकार कर दिया था। कोर्ट ने कहा था कि उद्धव ठाकरे गुट अस्थायी नाम और चुनाव चिह्न का इस्तेमाल जारी रख सकता है। कोर्ट ने एकनाथ शिंदे गुट और निर्वाचन आयोग को नोटिस जारी किया था। कोर्ट ने कहा था कि शिंदे गुट अभी ऐसा कुछ नहीं करेगा, जिससे उद्धव समर्थक सांसद और विधायक अयोग्य हो जाएं।
निर्वाचन आयोग ने 17 फरवरी को एकनाथ शिंदे गुट को असली शिवसेना करार देकर धनुष बाण चुनाव चिह्न आवंटित कर दिया। आयोग ने पाया था कि शिवसेना का मौजूदा संविधान अलोकतांत्रिक है। निर्वाचन आयोग ने कहा था कि शिवसेना के मूल संविधान में अलोकतांत्रिक तरीकों को गुपचुप तरीके से वापस लाया गया, जिससे पार्टी निजी जागीर के समान हो गई। इन तरीकों को निर्वाचन आयोग 1999 में नामंजूर कर चुका था। पार्टी की ऐसी संरचना भरोसा जगाने में नाकाम रहती है।
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान बेंच ने 3-2 के बहुमत से ईडब्ल्यूएस आरक्षण को वैध करार दिया है। जस्टिस दिनेश माहेश्वरी, जस्टिस बेला एम त्रिवेदी और जस्टिस जेबी पारदीवाला ने ईडब्ल्यूएस आरक्षण को वैध करार दिया, जबकि चीफ जस्टिस यूयू ललित और जस्टिस एस रविंद्र भट्ट ने ईडब्ल्यूएस आरक्षण से असहमति जताई।
तीनों जजों ने कहा कि ईडब्ल्यूएस आरक्षण संविधान की मूल भावना का उल्लंघन नहीं करता है। तीनों जजों ने संविधान के 103वें संशोधन को वैध करार दिया है। बेंच के सदस्य जस्टिस पारदीवाला ने कहा कि आरक्षण अनिश्चितकाल के लिए नहीं बरकरार रखा जा सकता है। वहीं जस्टिस बेला त्रिवेदी ने कहा कि आरक्षण की नीति की दोबारा पड़ताल करने की जरूरत है। जस्टिस एस रविंद्र भट्ट ने बहुमत के फैसले से असहमति जताते हुए कहा कि ईडब्ल्यूएस कोटे से एससी, एसटी और ओबीसी को बाहर करना ठीक नहीं है।
इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने 27 सितंबर को सभी पक्षों की दलीलें सुनने के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया था। सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार की ओर से तत्कालीन अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने कहा था कि 50 फीसदी आरक्षण की सीमा बालाजी के फैसले के बाद आई, जिसमें कोर्ट ने ये कहा था कि सामान्य वर्ग के लोगों का अधिकार खत्म न हो। उन्होंने कहा था कि राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के मुताबिक ये सरकार की जिम्मेदारी है कि बराबरी कायम रहे और उसी की वजह से ईडब्ल्यूएस लाया गया। अटार्नी जनरल ने कहा था कि 50 फीसदी आरक्षण में कोई छेड़छाड़ नहीं है। एससी, एसटी और ओबीसी के लिए कुछ नहीं बदला है और वे लाभप्रद स्थिति में रहेंगे। ईडब्ल्यूएस को 10 फीसदी आरक्षण ओबीसी, एससी और एसटी के आरक्षण से स्वतंत्र है।
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट बार-बार कह चुका है कि संसद आर्थिक आधार पर आरक्षण पर विचार करे। 50 फीसदी आरक्षण की सीमा को मौलिक ढांचा की सीमा नहीं समझना चाहिए। संविधान संशोधन की पड़ताल तभी की जानी चाहिए अगर लगता है कि इससे संविधान की मूल भावना का उल्लंघन किया गया है। मेहता ने कहा था कि संसद राष्ट्र की भावना का प्रतिनिधित्व करती है। अगर संसद संविधान में कोई प्रावधान जोड़ती है तो उसकी वैधता पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है।
ईडब्ल्यूएस उम्मीदवारों की ओर से वरिष्ठ वकील विभा दत्त मखीजा ने कहा था कि अब ईडब्ल्यूएस उम्मीदवार पात्र हो गए हैं।
उन्होंने कहा था कि ये मूल ढांचे का उल्लंघन नहीं करता है। हमें संविधान के बदलाव को देखना होगा। समय के हिसाब से समाज आगे बढ़ा है, जैसे धारा 377 और ट्रांसजेंडर्स के अधिकार इत्यादि। उन्होंने कहा था कि ईडब्ल्यूएस का अधिकार संविधान की धारा 21 से मिलता है और गरीबी एक मुख्य कारक है। तब चीफ जस्टिस ने कहा था कि इस बात का कोई अध्ययन नहीं है कि जिन परिवारों को आरक्षण नहीं मिला है, वे पीढ़ी दर पीढ़ी गरीब रहे हैं। जो चीज अस्थायी है उसे स्थायी नहीं कहा जा सकता है। एससी परिवार में जन्म लेना एक कलंक की बात होती है जो पीढ़ियों तक चलती है। तब मखीजा ने कहा था कि जाति आधारित आरक्षण का आधार ही ये है कि गरीबी सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन की वजह से है। तब जस्टिस भट्ट ने कहा था कि नहीं, ये जानबूझकर नहीं दिया जाता है। तब मखीजा ने पूछा कि क्या संविधान केवल जाति के आधार पर ही आरक्षण देता है। हमें नहीं लगता कि संविधान के रचनाकारों ने ऐसा सोचा होगा।
सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं ने कहा था कि ये बराबरी के संवैधानिक मूल्य का उल्लंघन करता है और संविधान में आर्थिक आधार पर आरक्षण की कभी चर्चा नहीं की गई है। वहीं ईडब्ल्यूएस के समर्थन में दलील देने वालों के मुताबिक ये आरक्षण काफी समय से अपेक्षित था और इसका स्वागत किया जाना चाहिए।
नई दिल्ली। मुस्लिम समुदाय में बहु-विवाह, निकाह हलाला, निकाह मुताह और निकाह मिस्यार के खिलाफ दायर याचिकाओं पर वकील अश्विनी उपाध्याय ने सुप्रीम कोर्ट से जल्द सुनवाई की मांग की। कोर्ट ने कहा कि अभी सरकार का जवाब आने का इतंजार कीजिए। अब संविधान पीठ दीपावली के बाद इस पर सुनवाई करेगी।
30 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट की संविधान बेंच ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, राष्ट्रीय महिला आयोग, अल्पसंख्यक आयोग को भी पार्टी बनाने का निर्देश दिया था। इस मामले में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर निकाह हलाला और बहु-विवाह का समर्थन किया है। बोर्ड ने निकाह हलाला, बहु-विवाह के खिलाफ दायर अर्जी का विरोध किया है। बोर्ड ने अपनी याचिका में कहा है कि 1997 के फैसले में ये साफ हो चुका है कि पर्सनल लॉ को मूल अधिकारों की कसौटी पर नहीं आंका जा सकता।
सुप्रीम कोर्ट ने 26 मार्च, 2018 को इस मसले पर सरकार को नोटिस जारी किया था। सुप्रीम कोर्ट ने इसे सुनवाई के लिए संविधान बेंच को रेफर कर दिया था। कोर्ट ने इस मामले में सहयोग करने के लिए अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल और विधि आयोग को निर्देश दिया था। भाजपा नेता और वकील अश्विनी उपाध्याय और सायरा बानो के बाद दिल्ली की महिला समीना बेगम ने बहु-विवाह और निकाह-हलाला के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है । अपनी याचिका में इस महिला ने बहु-विवाह और निकाह हलाला को भारतीय दंड संहिता के तहत अपराध घोषित करने और मुस्लिम पर्सनल लॉ की धारा 2 को असंवैधानिक करार देने की मांग की है ।
दक्षिणी दिल्ली की समीना बेगम ने याचिका दायर की है । उसने याचिका में कहा है कि उसकी शादी 1999 में जावेद अनवर से हुई थी । उससे उसे दो पुत्रे पैदा हुए । जावेद ने उसके ऊपर काफी अत्याचार किया । जब उसने आईपीसी की धारा 498ए के तहत शिकायत दर्ज कराई तो जावेद ने उसे तलाक का पत्र भेज दिया । उसके बाद उसने 2012 में रियाजुद्दीन शादी की जिसकी पहले से ही आरिफा नामक महिला से शादी हो चुकी थी । रिजायुद्दीन ने भी उसे उस समय फोन पर तलाक दे दिया था जब वह गर्भवती थी ।