बेगूसराय। 24 अक्टूबर को मनाए जाने वाले दीपों के पर्व दीपावली की सारी तैयारी अंतिम चरण में चुकी है। आधुनिकता के इस दौर में लोगों ने घरों की साफ-सफाई कर उसे विभिन्न आकर्षक रंगों से रंग कर सजा लिया है। डिजिटल जमाने में विभिन्न प्रकार के रंगीन बल्बों से आकर्षक डेकोरेशन किए गए हैं।
लक्ष्मी-गणेश की मिट्टी की प्रतिमा के अलावे नए-नए किस्म की प्रतिमाएं खरीदी जा रही है। दीपावली के उमंग पर आधुनिकता का रंग पूरी तरह से हावी हो गया है, लेकिन आज भी बिहार के लोग ”हुक्का पाती” को लोग नहीं भूले हैं। ग्रामीण बाजार से लेकर शहरों तक मिट्टी के बने रंग-बिरंगे दीप के साथ-साथ हुक्का पाती बनाने के लिए संठी (पटसन के पौधे से सन निकालने के बाद बचा हुआ लकड़ी जैसा हिस्सा) की दुकानें सज गई है।
शहर में ”हुक्का पाती” का प्रचलन भले ही धीरे-धीरे कम हो रहा है, लेकिन गांव में आज भी इसका जोश-खरोस जारी है। दीप जलाने के बाद दिवाली की रात हर घर के दरवाजे पर लोग हुक्का-पाती को जलाकर घुमाते और भांजते हैं, इसके साथ ही दिपावली मना लिए जाने का रिवाज पूरा होता है। संठी को मिलाकर कम से कम पांच जगहों पर बांध दिया जाता है। दिवाली की देर शाम में घर के सभी सदस्य लक्ष्मी-गणेश की पूजा करने के बाद पूजा घर के दीप से हुक्का पाती में आग सुलगाते हैं।
घर के मुख्य दरवाजे पर रखे गए दीप में लगाते हुए ”लक्ष्मी घर, दरिद्र बाहर, लक्ष्मी घर, दरिद्र बाहर” कहते हुए मुख्य द्वार से बाहर निकलते हैं दीप में उसे प्रज्जवलित कर तीन और पांच बार घर के बाहर लाकर बुझाया जाता है। उसके बाद अंतिम बार घर के सभी पुरुष सदस्य उसे हाथ में लेकर अपने पूरे परिसर का भ्रमण करते हैं और लकड़ी जब छोटी बच जाती है तो पांच बार उसे लांघ कर बुझा दिया जाता है।
परंपरा एवं संस्कृति के जानकार रामेश्वर सिंह कहते हैं कि हुक्का-पाती की पारंपरिकता और मान्यता अपने पितरों और पूर्वजों को सम्मान देने से जुड़ी है और यह सदियों से चली आ रही है। इसके तहत दक्षिण दिशा में हुक्का-पाती को जलाकर हम पितरों को प्रकाश दिखाने की परंपरा श्रद्धा के साथ निभाते हैं। इस परिपाटी से घर में हमेशा लक्ष्मी-गणेश का निवास होता है। पहले गांव-गांव में संठी की खेती होती थी और दीपावली के समय मुफ्त में लोग उसे बांटते थे। लेकिन अब एक और जहां खेती कम हो गई है, वहीं बांटने वाले भी समाप्त हो गए हैं और संठी बाजारों में बिक रहा है।