इला भटनागर
नई दिल्ली/गुरुग्राम। भागदौड़ से भरी वर्तमान जीवनशैली में कई बार लोग खुद को कमजोर अनुभव करने लगते हैं। स्थिति ऐसी हो जाती है कि उन्हें अपने आसपास हर चीज पर संदेह होने लगता है। यही स्थिति गंभीर हो जाए तो व्यक्ति अवसाद का शिकार होने लगता है और इसकी चपेट में आकर कुछ लोग अपनी जान तक दे देते हैं। आर्टेमिस हॉस्पिटल, गुरुग्राम के हेड कंसल्टेंट, मेंटल हेल्थ एंड बिहेवियरल साइंस डॉ. राहुल चंडोक ने यह बात कही। उन्होंने कहा कि अवसाद के लक्षणों को पहचानना और आत्महत्या के मामलों को रोकना जटिल है। इसके लिए व्यापक रणनीति की जरूरत होती है।
डॉ. चंडोक ने कहा कि शुरुआती स्तर पर अवसाद के लक्षण पहचान लेने से स्थिति बिगड़ने से पहले ही इलाज देना संभव हो पाता है। इसके लक्षणों को लेकर उन्होंने कहा कि अचानक भूख कम या ज्यादा हो जाना, जीवन को लेकर नकारात्मकता बढ़ना, ज्यादा थकान अनुभव करना, खुद को बेकार समझना, नींद का पैटर्न बदल जाना और हंसकर या मुस्कुराकर भावनाएं छिपाने की कोशिश करना आदि इसके लक्षणों में शुमार हैं।
डॉ. चंडोक ने कहा कि मानसिक स्वास्थ्य को लेकर लोग आज भी डॉक्टर से बात करने में शर्म करते हैं। इसी कारण से बहुत से लोग गंभीर अवसाद की चपेट में आ जाते हैं। इसलिए कभी भी लगे कि आपमें या आपके किसी करीबी में ऐसा कोई लक्षण है, तो इस हिचक को छोड़कर तत्काल डॉक्टर से बात कीजिए। इससे स्थिति गंभीर होने से बचेगी। अवसाद के इलाज में थेरेपी और दवा दोनों से मदद मिलती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक भारत में सबसे ज्यादा अवसादग्रस्त लोग हैं। दुर्भाग्य से यहां सामाजिक स्तर पर मानसिक समस्याओं को गंभीरता से नहीं लिया जाता है। इसी कारण से यहां आत्महत्या की दर बहुत ज्यादा है। डॉ. चंडोक ने कहा कि लोगों को अच्छे जीवन के लिए अच्छे मानसिक स्वास्थ्य के महत्व को लेकर जागरूक करना होगा। उन्हें बताना होगा कि इस तरह की समस्याओं के लिए डॉक्टर से संपर्क करना शर्म की बात नहीं है। मानसिक स्वास्थ्य को लेकर शुरुआती उम्र से ही जागरूकता लाने की आवश्यकता है। लोगों को वर्कशॉप और विभिन्न कैंपेन के माध्यम से जागरूक किया जाना चाहिए।
डॉ. चंडोक ने कहा कि किसी मुश्किल से जूझ रहे लोगों के लिए हमें सहयोगी माहौल बनाना चाहिए, जिससे वे स्वयं को अकेला अनुभव न करें। 2021 में यूनिसेफ और गैलप द्वारा किए गए सर्वेक्षण में सामने आया था कि भारतीय युवा मानसिक तनाव को लेकर चर्चा करने में हिचकते हैं। 15 से 24 साल के मात्र 41 प्रतिशत युवाओं ने ऐसे मामलों में किसी से सहयोग लेने को सहज माना। वहीं वर्ल्ड चिल्ड्रेन रिपोर्ट के मुताबिक, 21 देशों में ऐसा औसतन 81 प्रतिशत लोग मानते हैं। उन्होंने कहा कि किसी के प्रति मन में पहले से कोई राय बनाए बिना सद्भावनापूर्ण व्यवहार से आत्महत्या के मामलों को नियंत्रित को नियंत्रित करने में मदद मिल सकती है। लोगों की बात ध्यान से सुनें और उन्हें अपनेपन का अनुभव कराएं।
डॉ. चंडोक ने स्वास्थ्य कर्मियों, अध्यापकों और अन्य संबंधित पेशेवरों को इस संदर्भ में प्रशिक्षित करने पर भेजकर दिया। इससे समय पर लक्षणों को पहचानना और जरूरी सहयोग दे पाना संभव होगा। उन्होंने कहा कि ऐसे मामलों में लगातार ध्यान रखने की जरूरत होती है। एक बार अवसाद से बाहर आने से खतरा नहीं टल जाता है। ऐसी भावनाएं मन में बनी रह सकती हैं। इलाज के बाद भी उनके साथ बने रहना और संभावित लक्षणों पर नजर रखना जरूरी है, जिससे वे फिर अवसाद की चपेट में न आ जाएं। उन्होंने कहा कि आत्महत्या के मामलों को रोकने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है। इसमें परिवार, समाज और सरकार सभी की भूमिका है। अगर आपके आसपास भी कोई ऐसे लक्षणों के साथ हो तत्काल किसी मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ से परामर्श लें।