वर्ष 1991 में सितंबर का महीना था। ठीक से याद नहीं पर 20 या 22 तारीख थी। रात आधी बीत चुकी थी और मेरे मुस्लिम मित्र तीन सेल वाली टार्च और जालीदार टोपी लिए दालमंडी से चौक आने वाली सड़क पर खड़े मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। औरंगाबाद स्थित आवास से मैं भी निकल चुका था। चौक में उनसे मुलाकात हुई। उन्होंने जरूरी सलाह दी और मैं किसी डर की परवाह किए बगैर निकल पड़ा ज्ञानवापी की ओर।
यह कहना है 1991 के मुकदमे के मुख्य पक्षकार हरिहर पांडेय का। वह कहते हैं कि 1991 में हमने मंदिर हिंदुओं को सौंपने की मांग करते हुए कोर्ट में याचिका दाखिल की। इसके लिए हमारे पास प्रमाण नहीं थे। प्रमाण जुटाने के लिए योजना बनाई और मस्जिद में जाकर जो देखा, उसे नोट किया। इन्हीं तथ्यों के आधार पर अदालत में वाद दायर किया गया। यूं तो औरंगजेब के फरमान पर मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाए जाने के बाद से ही सनातन धर्मावलंबी इसे वापस लेने की मांग उठाते रहे, लेकिन आजादी के बाद पहली बार ज्ञानवापी में पूजन-अर्चन का अधिकार वापस पाने के लिए 1991 में अदालत में वाद दाखिल किया गया।
हरिहर पांडेय ने बताया कि 30 अक्टूबर, 1990 में कारसेवकों पर गोलियां चली थीं। पूरे देश में गुस्से और अनजान डर का माहौल था। बनारस में भी ज्ञानवापी मस्जिद की सुरक्षा बढ़ा दी गई थी। हम लोगों ने भी सच सामने लाने के लिए मुकदमा दाखिल करने की सोची। तब बार एसोसिएशन के अध्यक्ष रह चुके दानबहादुर सिंह हमारे वकील थे। उन्होंने कहा कि दावा तो हम ठोक दें पर हमारे पास कोई प्रमाण तो हो…। तब हरिहर पांडेय ने तय किया कि येन-केन प्रकारेण ज्ञानवापी के भीतर नीचे दबे मंदिर वाले हिस्से में जरूर जाएंगे।
पहला सवाल सामने खड़ा था- कैसे जाएंगे? जवाब भी हाजिर- बचपन के मित्र के सहारे। हरिहर पांडेय कहते हैं कि मेरे आत्मीय मुस्लिम मित्र थे। उनसे ज्ञानवापी में जाने की बात कही तो उन्होंने मना किया। कहा- पकड़े गए तो खैर नहीं..। फिर भी मेरी जिद के आगे उन्हें झुकना पड़ा। उन्होंने कहा, ‘मुस्लिम का वेश धरना होगा। कुरता-पाजामा और जालीदार टोपी। रात में जाना ठीक होगा। हरिहर पांडेय के मुताबिक, ‘घर से कुरता-पाजामा पहनकर निकला था। मुस्लिम मित्र की दी हुई जालीदार टोपी लगा, हाथ में लंबी टार्च लिए सुरक्षा घेरा पार करते हुए रात करीब एक बजे पहुंचा ज्ञानवापी मस्जिद। नीचे दबे मंदिर (तहखाना) में पहुंचा।
हरिहर पांडेय ने बताया कि नीचे मंदिर की दीवारों पर ही ऊपर स्थित मस्जिद का निर्माण स्पष्ट दिख रहा था। मैं करीब डेढ़ घंटे वहां रहा और सब कुछ नोट करता रहा। दीवारों पर स्वास्तिक, घंटियों, पान के पत्ते, गणेश, ऐरावत, कलश, त्रिशूल, कमल दल, नक्काशीदार स्तंभ आदि सनातन धर्म के प्रतीक चिह्नों की भरमार थी। विशाल मंदिर की भव्यता उसके ध्वंसावशेष देखकर ही आभासित हो रही थी। उनका कहना है कि हाल ही में कोर्ट में पेश की गई कमीशन रिपोर्ट में जिन आकृतियों के मिलने का उल्लेख है, वह सब सही है। मैंने भी वह सब देखा है। अदालत वास्तविक तथ्यों के आधार पर शीघ्र इस विवाद का निस्तारण करेगी, विश्वास है।