यूरोप (Europe) के साथ भारत (India) के संबंध दशकों तक मुख्य रूप से गैर-व्यापारिक मसलों पर केंद्रित रहे हैं. यूरोप और चीन के बीच बड़ा व्यापार होता रहा है, जिसकी वजह से यूरोप ने चीन की तुलना में भारत को कमतर महत्व दिया. चीन, यूरोपीय यूनियन का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है. 2021 में इनके बीच $709 बिलियन का व्यापार हुआ, जो कि अमेरिका के साथ $671 बिलियन के व्यापार से ज्यादा है. 27 देशों वाले इस यूनियन के लिए भारत तीसरा सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है, इनसे भारत का व्यापार 103 बिलियन डॉलर का है. इस हिसाब से यूरोपीय यूनियन-चीन व्यापार का यह लगभग सातवां हिस्सा है.
रक्षा संबंध व्यापारिक संबंधों को दर्शाते हैं. इस मामले में भारत, फ्रांस और ब्रिटेन को छोड़ दिया जाए तो यूरोप के साथ उतना जुड़ा हुआ नहीं है जितना कि वह रूस और अमेरिका के साथ जुड़ा है. पिछले चार दशकों के दौरान, भारत की बड़ी यूरोपीय रक्षा खरीद में जर्मन एचडीडब्ल्यू पनडुब्बियां, ब्रिटिश हॉक ट्रेनर, फ्रेंच डसॉल्ट मिराज-2000 मल्टी-रोल फाइटर्स, स्कॉर्पीन पनडुब्बियां और हाल की 116 राफेल फाइटर जेट्स डील शामिल हैं. लेकिन हो सकता है कि यूक्रेन युद्ध के कारण यूरोपीय देशों को भारत के बारे में दोबारा विचार करने के लिए मजबूर कर दिया है. और इसके पीछे कई वजहें हैं.
पहली वजह, यूरोप को यह अहसास हो चुका है कि रूस के साथ रक्षा संबंधों के कारण, भारत पर कोई भी दबाव उसे यूक्रेन पर तटस्थता के रुख से डिगा नहीं सकता. यूरोपीय रक्षा जानकारों का मानना है कि रूस की निंदा करने से भारत के इनकार ने रूस को वैश्विक मत के खिलाफ खड़े रहने में सक्षम बनाया. इसलिए, यह तर्क दिया जा रहा है कि रूसी हथियारों पर भारतीय निर्भरता को कम करने की आवश्यकता है और इसके लिए उसे अत्याधुनिक विमान, युद्धपोत और परमाणु ऊर्जा से चलने वाली पनडुब्बियां, साइबर युद्ध के उपकरण और आधुनिक युद्ध के नवीनतम उपकरणों सहित नवीनतम रक्षा हथियार और तकनीक देने की जरूरत है. इनमें उच्च तकनीक वाले सैन्य ड्रोन और मैन-पोर्टेबल एंटी-एयरक्राफ्ट और एंटी-आर्मर हथियार वगैरह भी शामिल हैं.
दूसरा कारण है यूरोप की अनदेखी और रूस-चीन की धुरी का भय. चीन द्वारा रूस के समर्थन ने यूरोपीय राष्ट्रों को चीन के प्रति उनके उदार रवैये पर दोबारा सोचने के लिए मजबूर किया है, जबकि चीन को यूरोप के प्रति अनुकूल माना जाता रहा है और कहा जाता रहा है कि उसकी केवल अमेरिका से शत्रुता है. हालांकि, हिमालय और हिंद महासागर में भारत की चिंताओं के बारे में यूरोपीय नेताओं ने केवल सहानुभूति दिखाने के अलावा कुछ नहीं किया है. इसलिए, भारत के लिए यह मानने का वाजिब कारण है कि उन्होंने (यूरोप ने) चीनी खतरे के बारे में भारत की चिंता को उतनी गंभीरता से नहीं लिया, जितना उन्हें लेना चाहिए था.
रूस-चीन गठजोड़ और यूक्रेन मामले में चीनी समर्थन के एवज में संभव है कि रूस भी चीन को कुछ दे, ऐसे में इसके अप्रत्याशित परिणाम हो सकते हैं. दो गैर-लोकतांत्रिक परमाणु देशों, जिनके पास विशाल औद्योगिक और प्राकृतिक संसाधन मौजूद हैं, के एक साथ आने को यूरोपीय देश घबराहट के साथ देख रहे हैं. और अगर भारत प्रभावित होता है, तो यूरोप पर भी असर पड़ेगा. चीन के साथ इसका एक ट्रिलियन के तीन-चौथाई के बराबर का व्यापार है और अरबों निवेश है, जो कि दांव पर लगा है.
यूरोपीय समुदाय भी अपने क्षेत्र में चीन के प्रवेश के बारे में चिंतित है, इसके वन बेल्ट एंड वन रोड इनिशिएटिव में कई देशों के सहयोग, और पश्चिमी देशों और नाटो को विभाजित करने के चीनी प्रयासों से रूस को भी लाभ होगा. इसके अलावा, यूरोपीय देशों की रक्षा बजट में 25 फीसदी से ज्यादा की बढ़ोतरी होने वाली है, यहां के रक्षा उद्योग का उत्पादन बढ़ेगा और ऐसे में उन्हें नए बाजार की तलाश होगी. अगर यूक्रेन संकट किसी तरह से हल हो भी जाता है, तो उनके पास हथियारों को जखीरा बढ़ जाएगा. ऐसे में भारत, जो कि हथियारों के मामले में दुनिया का तीसरी सबसे बड़ा खरीदार है, उन्हें एक आकर्षक बाजार लग रहा है.
यूरोप के लिए भारत के साथ रक्षा सहयोग हमेशा महत्वपूर्ण रहा है
यूरोप के लिए भारत के साथ रक्षा सहयोग हमेशा महत्वपूर्ण रहा है. वह दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र को एक विस्तारवादी चीन के जवाब के रूप में देखता है. भारत और यूरोपीय देशों ने संयुक्त सैन्य अभ्यास करते रहे हैं, इनमें RIMPAC, शक्ति, अजय योद्धा वगैरह शामिल हैं. लेकिन यूक्रेन संकट ने ऐसी आपात स्थिति तैयार कर दी है, जैसी पहले नहीं देखी गई. ब्रिटेन ने छठी पीढ़ी के स्वदेशी लड़ाकू विमान के निर्माण के लिए भारत को साथ आने को कहा है, और यूरोपीय काउंसिल जल्द ही दिल्ली को उन्नत ड्रोन, और करियर एयरक्राफ्ट और स्पेस डिफेंस सिस्टम के लिए PESCO (Permanent Structured Co-operation) प्रोजेक्ट में भाग लेने के लिए आमंत्रित कर सकता है.
यूरोपीय रक्षा उद्योग की कंपनियां, जैसे फ्रेंच डसॉल्ट एविएशन (राफेल), MBDA (मिग-200 अपग्रेड के लिए मिसाइल सिस्टम) और एरोस्पेटियाल (Alouette लाइट हेलीकॉप्टर), जर्मन थिसेन-क्रुप (HDW पनडुब्बी), डोर्नियर (यूटिलिटी हेलीकॉप्टर), डाइहल रेम्सचीड (अर्जुन टैंकों के लिए ट्रैक) और एटलस इलेक्ट्रोनिक (सोनार सिस्टम) वगैरह भारत में काम कर रही हैं और आने वाले समय में ये कंपनियां अपना कारोबार बढ़ाने पर ध्यान देंगी. लेकिन यूरोपीय कंपनियों को भारतीय डिफेंस प्लानर्स के द्वारा तय की गई कठिन शर्तों का सामना करना पड़ेगा. रक्षा अनुबंधों के लिए ‘मेक इन इंडिया’ मूलभूत सिद्धांत बन चुका है, ऐसे में यूरोपीय कंपनियों को टेक्नोलॉजी ट्रांसफर, कस्टमाइजेशन और भारत में निर्माण के लिए सहमत होना होगा. बहुतों को यह मुश्किल लग सकता है.
रूस की Rosoboronexport के अलावा, तीन यूरोपीय कंपनियों, फ्रांस की नेवल ग्रुप-DCNS, जर्मनी की थिसेन-क्रुप और स्पेन की नवांतिया, जिन्हें कोरिया की देवू के साथ भारत की उन्नत पनडुब्बी परियोजना- Project 75 के तहत छह पनडुब्बियों के निर्माण के लिए रिक्वेस्ट फॉर प्रपोजल (RFP) की पेशकश करने के लिए कहा गया था. खबर है कि इन कंपनियों ने 43,000 करोड़ रुपये के इस प्रोजेक्ट से अपने हाथ खींच लिए हैं.
भारत का सिक्योरिटी प्रोटोकॉल दूसरे देशों की तुलना में सबसे अधिक कठोर
हालांकि, इन कंपनियों से संबंधित देश भारत के साथ घनिष्ठ रक्षा संबंध स्थापित करना चाहते हैं, इसके बावजूद यूरोपीय निजी कंपनियां भारत के साथ टेक्नोलॉजी साझा करने के लिए अनिच्छुक हो सकती हैं. इसकी वजह स्वामित्व संबंधी चिंता के साथ-साथ यह डर भी है कि कहीं उनकी तकनीक रूसी हाथों में न पड़ जाए. कई यूरोपीय सुरक्षा जानकारों ने एक तर्कहीन भय को बढ़ावा दिया है. भारत का सिक्योरिटी प्रोटोकॉल दूसरे देशों की तुलना में सबसे अधिक कठोर है. भारतीय डिफेंस प्लानर्स और सेना को रूस से डील करना आसान लगता है, क्योंकि रूस से अधिकतर रक्षा आयात सरकार-से-सरकार अनुबंध आधार पर होते हैं. यदि रूसी निर्माताओं की अनुबंध की शर्तों पर कोई आपत्ति होती भी है तो, दिल्ली और मास्को के बीच घनिष्ठ संबंध की वजह से इसे दूर कर लिया जाता है.
प्रधानमंत्री की मौजूदा यात्रा और जून में होने वाले G-7 सम्मेलन के लिए बर्लिन यात्रा के दौरान, यूरोपीय निर्माताओं की इन समस्याओं और चिंताओं पर चर्चा की जा सकती है. प्रधानमंत्री की मौजूदा यात्रा के दौरान यूरोपीय यूनियन और भारत के बीच मुक्त व्यापार समझौते (FTA) पर तेजी आ सकती है. इस समझौते में टैरिफ, प्रवेश बाधाओं, बाजार पहुंच और निवेश सुरक्षा जैसे मुद्दों के कारण देरी हो रही है. हालांकि, यूरोपीय यूनियन और भारत ने 2004 में रणनीतिक साझेदारी समझौते पर हस्ताक्षर किए थे, लेकिन कुछ मुद्दों के कारण यह समझौता अटका हुआ है. इस समझौते में अगले पांच वर्षों में द्विपक्षीय व्यापार को दोगुना करने की क्षमता है. शुक्रवार को, भारत में यूरोपीय यूनियन के राजदूत, उगो एस्टुलो ने कहा कि जून में एफटीए वार्ता फिर से शुरू होगी और 2023-24 तक समाप्त होगी.