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महाराष्ट्र की राजनीति में एक बार फिर पकड़ बनाने के लिए राज ठाकरे खेल रहे हैं नया दांव

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शिवसेना (Shiv Sena) सुप्रीमो बालासाहेब ठाकरे (Bal Thackeray) के प्रिय भतीजे के रूप में राज ठाकरे (Raj Thackeray) को एक विशेष पहचान मिली थी. ऐसा लगने लगा था कि उनके चाचा के उत्तराधिकारी के तौर पर उन्हें ही चुना जाएगा. बालासाहेब के बेटे उद्धव एक शर्मीले, अंतर्मुखी व्यक्ति थे जिनकी राजनीति में भी कोई खास दिलचस्पी नहीं थी. वहीं राज अपने चाचा के बोलने के लहजे, हावभाव और खुलकर अपने भाव व्यक्त करने की कॉपी करने लगे (कई बार अहंकार की हद तक).

बालासाहेब ने उन्हें मार्मिक साप्ताहिक और सामना दैनिक में कार्टून बनाने की इजाजत दे दी. 1988 में राज सेना की छात्र शाखा भारतीय विद्यार्थी सेना के अध्यक्ष बने जिससे लोगों में यह धारणा बनने लगी कि बालासाहेब राज को पार्टी में बड़ी जिम्मेदारियों के लिए तैयार कर रहे हैं. इसके बाद राज ने बेरोजगार स्थानीय युवाओं के लिए शिवसेना के एक निजी रोजगार कार्यालय शिव उद्योग सेना की स्थापना की. फंड जुटाने के लिए उन्होंने मुंबई में पॉप सिंगर माइकल जैक्सन के शो का आयोजन भी किया. बालासाहेब के साथ अपनी निकटता के चलते वह सेना में अपना दबदबा बढ़ाने लगे. उन्हें उम्मीद थी कि अंत में पार्टी का नेतृत्व करने का मौका उन्हें ही मिलेगा.

लेकिन 2003 में समीकरण बदल गए. महाबलेश्वर में शिवसेना के सम्मेलन में पार्टी ने उद्धव को सेना कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में नियुक्त करने के लिए एक प्रस्ताव लेकर आई. विडंबना यह है कि यह प्रस्ताव राज द्वारा ही पेश किया गया था. राज ने कई सालों बाद इस बात का खुलासा किया कि उनके चाचा ने उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर किया था. उद्धव की नियुक्ति ने राज के सपनों को चकनाचूर कर दिया लेकिन वे इसका दुख मनाने के अलावा कुछ नहीं कर सकते थे.

सेना से हुए अलग

आखिर 2006 में राज ने शिवसेना से अलग होकर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (MNS) का गठन किया जिसने शुरू में एक उदार रुख अपनाया. पार्टी के झंडे में नीली, भगवा, हरी और सफेद समानान्तर धारियां थीं जो दर्शाती हैं कि पार्टी दलितों, हिंदुओं, मुसलमानों और अन्य लोगों के साथ है. अपना बाहुबल दिखाने लिए शिवसेना और मनसे कार्यकर्ताओं के बीच मुंबई में कई बार हाथापाई भी हुई. बालासाहेब ने सार्वजनिक रूप से राज को मनसे के होर्डिंग्स पर अपनी तस्वीर का इस्तेमाल करने से रोक दिया. मनसे ने शिवसेना के उन असंतुष्ट सदस्यों का इस्तेमाल किया जिन्हें उद्धव के शांत नेतृत्व के साथ तालमेल बिठाना मुश्किल हो रहा था. वहीं परप्रांतियों के खिलाफ आक्रामक रूख, उन साइन बोर्ड को तोड़ना जो मराठी में नहीं थे और टोल माफी जैसे मुद्दों के चलते लोगों के बीच मनसे की एक अलग पहचान बन गई.

मनसे ने 2009 के विधानसभा चुनावों में 13 विधायकों के निर्वाचित होने के साथ एक शानदार शुरुआत की. इसके बाद कई शहरों में स्थानीय निकाय के चुनावों में भी पार्टी पैर जमाने में कामयाब रही. नासिक में 40 मनसे पार्षद चुने गए और पार्टी ने 2012 में नासिक नगर निगम में सत्ता हासिल की. उसी साल बालासाहेब की मृत्यु हो गई और राज ने उद्धव के शांत स्वभाव के विपरीत दबंग छवि के चलते अपनी पार्टी को सेना से आगे ले जाने की कोशिश की.

हालांकि उनके निरंकुश अंदाज और जिस तेजी के साथ वह अपनी पार्टी को आगे बढ़ाना चाहते थे वही वसंत गीते, शिशिर शिंदे और प्रवीण दरेकर जैसे उनके कुछ भरोसेमंद सहयोगियों के मनसे छोड़ने की वजह बनी. जिस तेजी से उनकी पार्टी का ग्राफ आगे बढ़ रहा था वैसे ही गिरने लगा. राज नरेंद्र मोदी के प्रशंसक बन गए जो उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री थे. उन्होंने गुजरात का दौरा किया और अपनी वापसी पर मोदी द्वारा गुजरात में किए विकास की प्रशंसा की और कहा कि मोदी को प्रधानमंत्री बनना चाहिए.

मोदी पर बदला अपना रुख

हालांकि 2019 के लोकसभा और विधानसभा चुनावों की पूर्व संध्या पर उन्होंने मोदी पर अपनी राय बदल दी और अपने चुनाव अभियान के भाषणों में शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी नेताओं की तुलना में मोदी को ज्यादा निशाना बनाया. उन्होंने एक जनसभा में यह भी स्वीकार किया कि जब वे गुजरात गए थे तब वे एक आयोजित दौरे पर थे और उन्हें केवल अच्छी चीजें दिखाई गईं. उन्होंने मोदी और महाराष्ट्र सरकार द्वारा किए गए झूठे दावों को उजागर करने के लिए सार्वजनिक सभाओं में आंकड़ों और वीडियो क्लिप का हवाला भी किया.

इस सबके बाद भी मनसे को विधानसभा में केवल एक ही सीट मिल सकी. पार्टी पहले ही नासिक नगर निकाय में भाजपा के हाथों सत्ता खो चुकी थी. उद्धव के राजनीति में आने और 2019 में एनसीपी और कांग्रेस के समर्थन से मुख्यमंत्री बनने के बाद से राज अपने राजनीतिक भविष्य को फिर से पटरी पर लाने के लिए बेताब थे. इसके अलावा दादर में कोहिनूर मिल की जमीन की खरीद में 421 करोड़ रुपये के वित्तीय लेनदेन के लिए वरिष्ठ शिवसेना नेता मनोहर जोशी के बेटे उन्मेष के साथ राज भी ईडी के निशाने पर थे.

2020 में राज ने मनसे के झंडे को बदल दिया और उसमें से पिछले रंगों को हटा दिया. नया झंडा केवल भगवा रंग का है जिसके बीच में भूरे रंग में छत्रपति शिवाजी महाराज की मुहर है. उन्होंने घोषणा की कि उनकी पार्टी हिंदुत्व पर ध्यान केंद्रित करेगी. नीतियों में भारी बदलाव के बावजूद अपनी राजनीतिक पहचान खो चुकी मनसे को पुनर्जीवित करने के लिए राज ने पूरे महाराष्ट्र में आगामी स्थानीय निकाय चुनावों (मुंबई, नासिक, ठाणे और पुणे जैसे शहरों सहित, जहां मनसे को समर्थन मिला था) को एक बढ़िया मौके के तौर पर देखा.

चाचा का चहेता?

मस्जिदों के ऊपर लाउडस्पीकर पर बजने वाली अज़ान से आस-पड़ोस के लोगों के परेशान होने का मुद्दा राज को मिल गया. बालासाहेब भी इस मुद्दे पर बोलते थे और लाउडस्पीकरों पर अंकुश लगाने के लिए कहते थे और अब राज इस मामले में अपने चाचा की भूमिका निभाने की कोशिश कर रहे हैं. धर्मनिरपेक्ष दलों के समर्थन से उद्धव सत्ता में हैं और भाजपा ने उद्धव पर हिंदुत्व को कमजोर करने का आरोप लगाया है वहीं विरोधी पार्टियां राज पर भाजपा का मोहरा होने का इल्जाम लगा रहीं हैं.

कोर्ट के आदेशानुसार डेसिबल स्तर, पुलिस की मंजूरी के बिना कोई भी लाउडस्पीकर सार्वजनिक स्थल पर नहीं लगाया जा सकता और इसका इस्तेमाल रात 10 बजे से सुबह 6 बजे तक नहीं होगा. लेकिन आदेशों का पालन नहीं हो रहा है और राज अपने राजनीतिक अस्तित्व के लिए मस्जिदों के ऊपर लाउडस्पीकर के इस्तेमाल का मामला उठाकर इसका फायदा उठा रहे हैं. कई सालों तक राज की पहचान एक प्रभावशाली राजनीतिक परिवार से जुड़े होने और चाचा के उत्तराधिकारी के तौर पर देखी गई. उनके पास सब कुछ था जब तक कि बालासाहेब ने उद्धव को अपना उत्तराधिकारी नहीं बनाया था.

मुख्यमंत्री बनने के लिए जहां उद्धव एमवीए में शामिल हो गए और हिंदुत्व का मुद्दा को भुला दिया वहीं राज हिंदुत्व के मुद्दे पर शिवसेना के कार्यकर्ताओं का समर्थन हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं. हालांकि बालासाहेब सार्वजनिक रूप से कुछ भी कह सकते थे और उससे बच सकते थे क्योंकि कांग्रेस और राकांपा का उनके प्रति उदार दृष्टिकोण था. 1992-93 में मुंबई में हुए सांप्रदायिक दंगों पर श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट में आरोपी होने के बाद भी राज्य की तत्कालीन सरकार ने उनके खिलाफ चार्ज नहीं लगाए. पवार उनके एक पारिवारिक मित्र थे और अब भी हैं.

राजनीति

राज का राजनीतिक सफर विवादों से भरा रहा है. सबसे चौंकाने वाला मामला है मुंबई के माटुंगा निवासी रमेश किनी की हत्या का. किनी लापता हो गए थे और 1996 में पुणे के एक सिनेमाघर में उसकी लाश पाई गई जिस दौरान राज्य में शिवसेना-भाजपा सत्ता में थी (1995-1999). उनकी हत्या संपत्ति के एक मुद्दे से जुड़ी थी क्योंकि किनी ने घर खाली करने से इनकार कर दिया था. इस मामले में राज का नाम लिया जा रहा था लेकिन उनका नाम सीबीआई के आरोप पत्र में नहीं आया. वे कोहिनूर मिल सौदे को लेकर भी ईडी के निशाने पर हैं.

लाउडस्पीकर की समस्या का समाधान सभी पक्षों को विश्वास में लेकर न्यायालय के आदेश को शांतिपूर्ण ढंग से लागू करके सुलझाया जा सकता था लेकिन राज्य सरकार ने जाहिर तौर पर इससे किनारा कर लिया जिससे राज को अपना हित साधने में मदद मिली. दरअसल नासिक के पुलिस कमिश्नर दीपक पांडे ने जिन्होंने कोर्ट के आदेश को लागू किया और सभी धर्मस्थलों को लाउडस्पीकर के इस्तेमाल के लिए 3 मई (राज की समय सीमा) से पहले पुलिस की अनुमति लेने के आदेश जारी किए थे; और जब मस्जिदों में अज़ान हो रही थी तब मंदिरों पर लाउडस्पीकर बजाने पर रोक लगा दी गई थी. लेकिन उद्धव सरकार ने आनन-फानन में पांडे का तबादला कर दिया और उनके बाद आए कमिश्नर ने पांडे के आदेश को रद्द कर दिया.

राज की पहचान एक अवसरवादी और अहंकारी नेता की है. अपने चाचा की नकल करते हुए उन्होंने इस सच को नजरअंदाज कर दिया कि बालासाहेब ने अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं के साथ मानवीय व्यवहार किया और जब भी उन्हें जरूरत पड़ी उनकी मदद की. इसके अलावा बालासाहेब से मिलना आसान था वह अपने अनुयायियों की बात सुनते थे जो एक जिम्मेदार बुजुर्ग की तरह उनसे मिलने आते थे. राज एक ऐसे राजनेता है जिन्हें एक मजबूत राजनीतिक पृष्ठभूमि मिली है. वे अपने राजनीतिक सपने को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं. सवाल यह है कि किस कीमत पर?

(लेखक मुंबई में स्थित एक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)

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