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पूजा स्थल कानून की वैधानिकता को दी गई चुनौती, स्वामी जितेंद्रानंद सरस्वती दायर की याचिका

by City Headline

नई दिल्ली

सुप्रीम कोर्ट में एक नई याचिका दाखिल हुई है जिसमें पूजा स्थल कानून की वैधानिकता को चुनौती दी गई है। स्वामी जितेंद्रानंद सरस्वती ने याचिका में 1991 के कानून को मौलिक अधिकारों और संवैधानिक प्रविधानों के खिलाफ बताते हुए असंवैधानिक घोषित करने की मांग की है। इस कानून की वैधानिकता का मामला पहले से सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है।

भाजपा नेता और वकील अश्वनी कुमार उपाध्याय की कानून को चुनौती देने वाली याचिका पर पिछले साल मार्च में शीर्ष कोर्ट ने सरकार को नोटिस जारी किया था। अभी तक सरकार ने जवाब दाखिल नहीं किया है और न ही उसके बाद मामला दोबारा सुनवाई पर ही लगा। स्वामी जितेंद्रानंद सरस्वती ने याचिका में कहा है कि यह कानून समानता, जीवन व स्वतंत्रता, धार्मिक स्वतंत्रता और धार्मिक स्थल के प्रबंधन के मौलिक अधिकार का हनन करता है।

यह पंथनिरपेक्ष और कानून के शासन के सिद्धांत का भी उल्लंघन करता है जो संविधान की प्रस्तावना और उसके मूल ढांचे का हिस्सा है। कानून के असंवैधानिक होने के कारण गिनाते हुए याचिका में कहा गया है कि यह हिंदुओं, जैनियों, बौद्धों और सिखों को संविधान के अनुच्छेद-25 में मिले धर्म के पालन और प्रचार के मौलिक अधिकार को बाधित करता है, साथ ही उन्हें अनुच्छेद-26 के तहत मिले अपने पूजा स्थलों और तीर्थस्थलों के प्रबंधन के अधिकार से भी वंचित करता है।

यह कानून हिंदुओं, जैनियों, बौद्धों, सिखों को उनके देवताओं की उन धार्मिक संपत्तियों को वापस लेने से वंचित करता है जिनका अन्य समुदाय के लोगों ने दुरुपयोग किया है। कानून में हिंदुओं, जैनियों, बौद्धों और सिखों को उनके पूजा स्थल और तीर्थस्थल सांस्कृति धरोहर (अनुच्छेद-29) को वापस पाने से वंचित किया गया है।

जबकि मुसलमानों को वक्फ कानून की धारा-107 में ऐसा दावा करने का अधिकार और इजाजत है। इस कानून में हिंदू विधि के उस सिद्धांत का उल्लंघन होता है जो कहती है कि मंदिर की संपत्ति कभी समाप्त नहीं होती, चाहे वर्षों किसी अजनबी ने उसका उपयोग किया हो, यहां तक कि राजा भी मंदिर की संपत्ति नहीं ले सकता क्योंकि देवता की मूर्ति भगवान है जो एक न्यायिक व्यक्ति है, जो अनंत है जिसे किसी समय सीमा में नहीं बांधा जा सकता।

पूजा स्थल (विशेष प्रविधान) कानून 11 जुलाई, 1991 को लागू हुआ था। केंद्र ने इस कानून के जरिये मनमानी कट आफ डेट तय करते हुए घोषित किया था कि पूजा स्थलों-तीर्थस्थलों का वही स्वरूप रहेगा जो 15 अगस्त, 1947 को था। याचिका में कहा गया है कि संप्रभु आक्रांताओं द्वारा की गई गलतियों को सुधार सकता है और संप्रभुता जनता में निहित है। न्यायपालिका संप्रभु राज्य का एक अंग है और न्यायपालिका का कर्तव्य है कि वह नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करे।

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