सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि नौकरी के लिए आवेदन करने वाले अभ्यर्थी को इस बात पर जोर देने का कोई कानूनी अधिकार नहीं मिलता कि शुरू की गई भर्ती प्रक्रिया को पूरा किया जाए। जस्टिस केएम जोसेफ और जस्टिस हृषिकेश राय की पीठ ने कहा कि अभ्यर्थी के चयन सूची में शामिल होने के बावजूद भी उसे यह अधिकार उपलब्ध नहीं होता। साथ ही पीठ ने स्पष्ट किया कि इसका यह मतलब नहीं कि नियोक्ता मनमानी करने के लिए स्वतंत्र है।
शीर्ष अदालत ने यह टिप्पणी उस मामले में फैसला सुनाते हुए की जिसमें एक मार्च, 2018 को एक विज्ञापन जारी कर कर्मचारी राज्य बीमा निगम द्वारा संचालित कालेजों के लिए अन्य पदों के साथ-साथ एसोसिएट प्रोफेसर पद के लिए भी ऑनलाइन आवेदन आमंत्रित किए गए थे। 21 मार्च, 2018 को एक और नोटिस जारी करके एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर पद के लिए भर्ती प्रक्रिया को प्रशासनिक कारणों से टाल दिया गया था।
एक आवेदक ने केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (कैट) में याचिका दाखिल कर विज्ञापन के मुताबिक एसोसिएट प्रोफेसर का पद भरने के लिए निर्देश जारी करने की मांग की थी और कैट ने उसके पक्ष में आदेश भी पारित कर दिया था। इस आदेश को कर्नाटक हाईकोर्ट में चुनौती दी गई थी जिसने रिट याचिका खारिज कर दी थी। शीर्ष अदालत ने कहा कि हाईकोर्ट का 45 दिनों में भर्ती प्रक्रिया पूरी करने का आदेश स्पष्ट रूप से बरकरार रखने योग्य नहीं है।
इसी के साथ ही पीठ ने कहा, उसका मानना है कि अपीलकर्ताओं को निष्पक्ष और समयबद्ध फैसला लेना चाहिए। उसे इस तथ्य से बेखबर नहीं रहना चाहिए कि लोगों ने आवेदन किया है और वे भी अपीलकर्ता जैसे निकाय से निष्पक्ष व्यवहार की उम्मीद कर रहे होंगे। लिहाजा, हम अपील को स्वीकृति देते हैं और फैसले (हाईकोर्ट के) को खारिज करते हैं। हम अपीलकर्ताओं को निर्देश देते हैं कि दो महीने के भीतर सभी उचित पहलुओं को ध्यान में रखते हुए फैसला लें।