City Headlines

Home » सोची समझी रणनीति के तहत राहुल ने छोड़ा अमेठी, इन समीकरणों के चलते चुनी गई रायबरेली की सीट

सोची समझी रणनीति के तहत राहुल ने छोड़ा अमेठी, इन समीकरणों के चलते चुनी गई रायबरेली की सीट

by Nikhil

अमेठी का रण छोड़कर राहुल गांधी ने एक साथ कई निशाने साधे हैं। इसके पीछे कांग्रेस की सोची-समझी रणनीति नजर आती है। एक तो कमजोर संगठन, दूसरा हार के बाद क्षेत्र से दूरी सहित कई ऐसे कारण हैं, जिसका जवाब कांग्रेस नहीं खोज पा रही थी। ऐसे में एक बीच का रास्ता निकाला गया। नतीजन, करीब एक माह से अमेठी और रायबरेली में प्रत्याशी चयन को लेकर बने सस्पेंस पर अंतिम क्षणों में पर्दा उठा। राहुल गांधी के रायबरेली और अमेठी से किशोरी लाल शर्मा के नामांकन के बाद कार्यकर्ता तक सकते में हैं। चाय-पान की दुकानों से लेकर सोशल मीडिया तक में यहीं छाया हुआ है। इसके नफा-नुकसान का आकलन हो रहा है।

वैसे गांधी नेहरू परिवार की सियासत पर निगाह डालें तो यह निर्णय बहुत अप्रत्याशित नहीं लगता। रायबरेली और अमेठी में गांधी नेहरू परिवार की पकड़ के लिहाज से देखें तो रायबरेली का पलड़ा हमेशा भारी रहा। पिछले चुनावों के नतीजों से लेकर जीत की लीड तक के आंकड़े इसे तस्दीक करते हैं। जाहिर तौर पर अमेठी की तुलना में रायबरेली गांधी परिवार के लिए कहीं अधिक सुरक्षित व मुफीद है।

पिछले दिनों सोनिया गांधी के राज्यसभा में जाने के बाद जारी किए गए उनके भावुक पत्र के बाद ही यह बड़ा सवाल खड़ा हुआ था कि रायबरेली में उनकी विरासत कौन संभालेगा। बेटा राहुल गांधी या फिर बिटिया प्रियंका गांधी। विरासत के सवाल का महज चार दशक का ही मंथन करें तो तस्वीर बिल्कुल साफ हो जाती है। 1980 में संजय गांधी की मौत के बाद जब बेटे राजीव गांधी और बहू मेनका गांधी में किसी एक के चयन की बात आई तो इंदिरा गांधी ने भी बेटे को तवज्जो दी थी। 1984 में मेनका गांधी बगावती तेवर अख्तियार कर राजीव गांधी के खिलाफ मैदान में उतरीं तो शिकस्त का मुंह देखना पड़ा।

अमेठी में सोनिया ने संभाली थी विरासत
1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद 1999 में सोनिया गांधी राजनीति में लौटीं तो अमेठी में पति की विरासत को संभाला। 2004 में जब उन्होंने अपना क्षेत्र बदलकर रायबरेली किया तो अमेठी सीट राहुल गांधी को ही सौंपी। यह वह दौर था जब सोनिया से लेकर कमोवेश पूरी कांग्रेस राहुल के पीछे खड़ी थी। राहुल ने पार्टी की कमान तक संभाली।

इस बीच देश व प्रदेश में हुए विभिन्न चुनावों से लेकर अमेठी के विधानसभा क्षेत्रों तक में अपेक्षित सफलता नहीं मिलने के बाद कई बार कांग्रेस में प्रियंका गांधी को आगे करने की मांग उठी। अमेठी के लोगों में भी प्रियंका गांधी का जादू सिर चढ़कर बोल रहा था। ”अमेठी का डंका बिटिया प्रियंका”, ”अन्ना की लंका जलाएंगी प्रियंका” जैसे नारे अमेठी की दीवारों पर नुमाया होना आम बात थी। इसके बाद भी कांग्रेस ने इसे गंभीरता से नहीं लिया।

यहां तक कि अपने सियासी कार्य व्यवहार में प्रियंका गांधी भी अपने भाई राहुल गांधी के साथ सेकंड रोल में ही नजर आईं। वे हमेशा राहुल गांधी को अपना नायक मान उनके पीछे ही चलती रहीं। ऐसे में सोनिया गांधी की विरासत राहुल गांधी को मिलने की घटना अनोखी कतई नहीं लगती।

बहन-भाई ना उतरने देने की बात रणनीति
जहां तक अमेठी से प्रियंका गांधी के मैदान में नहीं उतरने की बात है तो इसके पीछे भी कांग्रेस की सोची-समझी रणनीति नजर आती है। प्रियंका के चुनाव लड़ने से उन्हें अमेठी में कहीं अधिक समय देना पड़ता। विपक्ष की व्यूह रचना में भाई-बहन रायबरेली और अमेठी में फंसकर रह जाते। वर्तमान सियासी परिदृश्य में प्रियंका गांधी रायबरेली के साथ ही अमेठी में भरपूर समय दे सकेंगी जबकि राहुल गांधी देश के अन्य क्षेत्रों में चुनाव प्रचार कर सकेंगे।

पहले भी रायबरेली-अमेठी के चुनाव का संचालन प्रियंका ने संभाला
प्रियंका पूर्व में भी रायबरेली और अमेठी के चुनाव संचालन देखती रही हैं। जहां तक किशोरी लाल शर्मा के अमेठी से चुनाव मैदान में उतरने की बात है, वे कार्यकर्ताओं के लिए नए नहीं हैं। पार्टी पदाधिकारियों से लेकर छोटे कार्यकर्ता तक उन्हें अच्छे से जानते-समझते हैं। हां, जनता के बीच उन्हें खुद को स्थापित करने की चुनौती जरूर है।

अमेठी से रिश्ता खत्म
1977 में संजय गांधी ने अमेठी से पहला चुनाव लड़ा था। वहीं, इंदिरा गांधी रायबरेली से प्रत्याशी थीं। जनता पार्टी की लहर में दोनों को पराजय का मुंह देखना पड़ा था। दोनों ने अपनी सीटों से 1980 में फिर चुनाव लड़ा। दोनों को जनता ने सिर आंखों पर बैठाया। दोनों को विजय मिली। राहुल के अमेठी छोड़ने की वजह चाहे जो भी हो लेकिन विपक्ष को हमलावर होने का मौका जरूर मिल गया। जनता में भी इसका मैसेज ठीक नहीं जाएगा।

Subscribe News Letter

Copyright © 2022 City Headlines.  All rights reserved.