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संतोष ट्रॉफी साबित करता है कि भारतीय फुटबॉल पर अभी भी प्रशंसकों का जुनून राज करता है

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जयदीप बसु:

भारत के पूर्व कप्तान चुन्नी गोस्वामी के पास एक दिलचस्प कहानी थी. और ये कहानी कुछ ऐसी थी जिसे वो 2020 में अंतिम सांस लेने तक दोहराते रहते थे. राष्ट्रीय फुटबॉल चैम्पियनशिप के तहत संतोष ट्रॉफी (Santosh Trophy Final) जनवरी 1976 में कोझीकोड में आयोजित की गई थी. सीनियर सेलेक्शन कमेटी के एक सदस्य होने के नाते गोस्वामी को क्वार्टर फाइनल से आगे के मैचों को देखना था. गोस्वामी कोच्चि पहुंचे और कोझीकोड के लिए एक टैक्सी किराए पर ली. स्टीयरिंग व्हील पर हाथ रखे मध्यम आयु वर्ग का ड्राइवर बहुत कम बोलने वाला था. ठीक ठाक तरीके से गंतव्य पर पहुंचने पर ड्राइवर ने जो राशि मांगी वो तय राशि से कम थी. भारतीय फ़ुटबॉल के पहले मेगास्टार माने जाने वाले गोस्वामी ने जैसे ही ड्राइवर की ओर देखा तो उसने कारण बताया. 1956 में कोच्चि ने संतोष ट्रॉफी (Santosh Trophy 2022) की मेजबानी की थी और उस मैच में गोस्वामी, जो तब एक किशोर थे और अपनी पहली राष्ट्रीय चैंपियनशिप खेल रहे थे, ने अपने चकाचौंध भरे प्रदर्शन से बंगाल (Kerala vs West Bengal) को जीत दिलाई थी.

उन दिनों ड्राइवर रोज ही खेल मैदान पर आता था. और अब 20 साल बाद भी उसे उस व्यक्ति को पहचानने में कोई दिक्कत नहीं हुई जिसने अपने खेल से दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया था. ऐसे में वह उनसे एक आम यात्री जैसा व्यवहार कैसे कर सकता था? गोस्वामी ने बाद में कहा कि यह उनके जीवन की अब तक की सबसे बड़ी तारीफों में से एक थी. लेकिन गोस्वामी की घटना कोई अकेली घटना नहीं थी. अगर कुछ औऱ जांच-पड़ताल की जाए तो कई और पूर्व फुटबॉलरों से भी ऐसी ही कहानियां सुनने को मिल सकती है. संतोष ट्रॉफी ने हमेशा लोगों को करीब लाया था और इसने कई सालों तक दर्शकों का दिल जीता.

संतोष ट्रॉफी का फाइनल देखने के लिए उमड़ी भीड़

आधिकारिक अनुमान के अनुसार करीब 26,000 लोगों की भीड़ ने सोमवार को मलप्पुरम में संतोष ट्रॉफी का फाइनल मैच देखा था. इस मैच में केरल ने टाई-ब्रेकर में बंगाल को हराया था. फाइनल मैच ही नहीं बल्कि पूरे टूर्नामेंट के दौरान लगभग हर मैच में दर्शकों की भारी भीड़ होती थी. इतनी बड़ी भीड़ देख मीडिया भी काफी खुश थी. अखबारों ने मलप्पुरम के फुटबॉल प्रेम पर लंबे लंबे लेख प्रकाशित किए. टेलीविजन कैमरों ने खचाखच भरे स्टैंड की तरफ कैमरा घुमाकर अपने दर्शकों को बताया कि संतोष ट्रॉफी में लोगों की भारी दिलचस्पी देखी जा सकती है. खैर, चीजों को एक अलग नजरिए से भी देखा जा सकता है. केरल में संतोष ट्रॉफी 2021-22 की सफलता देख ये तो कहा ही जा सकता है कि चाहे कितनी भी कोशिश की जाए इस अंतर-राज्यीय चैंपियनशिप की लोकप्रियता पर अंकुश लगाना मुश्किल है.

1996-97 में अखिल भारतीय क्लब-आधारित लीग की शुरुआत के बाद से संतोष ट्रॉफी के महत्व को कम करने की कोशिश होती रही है. भारत के कई फुटबॉल विशेषज्ञ लगातार ये दावा करते रहे हैं कि क्लब ही फुटबॉल की तरक्की की रीढ़ है और इसे हर हाल में प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. उनका ये भी मानना है कि संतोष ट्राफी पुराने विचारों पर आधारित है और इसे जितनी जल्दी खारिज कर दिया जाए उतना ही अच्छा है. इन भारतीय फुटबॉल विशेषज्ञों में कई यूरोपीय फुटबॉल से अच्छी तरह वाकिफ हैं.

संतोष ट्रॉफी के साथ हो रहा है भेदभाव?

महामारी के दौरान इंडियन सुपर लीग (ISL) का आयोजन बड़ी सफलता के साथ किया गया था. आई-लीग का आयोजन भी अखिल भारतीय फुटबॉल महासंघ (एआईएफएफ) ने पूरी गंभीरता के साथ किया था. लेकिन संतोष ट्रॉफी को रोक दिया गया था. पिछली बार यह 2018-19 सीज़न के दौरान लुधियाना में आयोजित की गई थी. संतोष ट्रॉफी इन दिनों काफी पाबंदियों के साथ खेली जाती है. कोई भी राज्य अपने पक्ष को मजबूत करने के लिए आईएसएल या आई-लीग के खिलाड़ियों को शामिल नहीं कर सकता है. हालात ऐसे दौर में पहुंच गए हैं कि 32 बार के चैंपियन बंगाल को अपने इतिहास में पहली बार एक ऐसे फुटबॉलर को शामिल करना पड़ा था जिसने कभी कोलकाता लीग भी नहीं खेला था.

मशहूर फुटबॉलरों को खेलने से रोका गया, कैलेंडर में उचित कार्यक्रम से वंचित कर दिया गया, एआईएफएफ के आधिकारिक मार्केटिंग पार्टनर द्वारा टेलीविजन कवरेज की अनदेखी की गई, लेकिन इन तमाम हथकंडों के बावजूद संतोष ट्रॉफी की ताकत को कमजोर नहीं किया जा सका. 2004 में जब दिल्ली ने टूर्नामेंट की मेजबानी की थी तो एक धुंधली सी याद उस समय की है. घरेलू टीम एक मध्यम दर्जे की टीम थी और जल्दी ही बाहर हो गई थी. आश्चर्य की बात तो ये थी कि बंगाल पहले दौर में ही बाहर हो गया था. ऐसे हालात में टूर्नामेंट के दौरान दर्शकों की उपस्थिति को लेकर आयोजक काफी चिंतित थे. लेकिन यह सब पुरानी बात हो गई, बाकी सभी इतिहास ही था. पंजाब और मणिपुर के बीच के सेमीफाइनल मैच के टिकट के लिए अभूतपूर्व मारामारी थी. केरल-पंजाब के बीच के फाइनल मैच से पहले दिल्ली सॉकर एसोसिएशन (डीएसए) के अधिकारियों ने अतिरिक्त पुलिस बल की मांग की ताकि अंबेडकर स्टेडियम में गेट क्रैश को रोका जा सके. आईएम विजयन दर्शक बनकर आए लेकिन उन्हें सीट नहीं मिली. आखिरकार उन्हें गोवा के एक पत्रकार के साथ कुर्सी साझा करनी पड़ी.

लेकिन कहानी कहीं और है. केरल ने फाइनल में पंजाब को हराकर संतोष ट्रॉफी जीत लिया. केरल के हजारों प्रशंसकों ने स्टैंड में जश्न मनाया. एक राष्ट्रीय दैनिक ने खबर का शीर्षक लिखा: “दिल्ली फुटबॉल का सुपर-संडे.” पांच दिन बाद डूरंड कप शुरू हुआ और पहले दिन केरल का एक क्लब 1-3 से मैच हार गया. गौरतलब है कि इस केरल क्लब की टीम में संतोष ट्रॉफी खेलने वाले करीबन आधा दर्जन खिलाड़ी थे. औऱ मैदान पर बमुश्किल 200 लोग भी नहीं थे जो केरल क्लब का उत्साह बढ़ा सकें.

संतोष ट्रॉफी की वजह से बढ़ रहा फुटबॉल का क्रेज

इसमें कोई पहेली नहीं है. इन सभी वर्षों के दौरान कुछ राज्यों को छोड़कर फुटबॉल में क्लब संस्कृति पूरे भारत में नहीं फैल सकी है. इसके बजाय, यह संतोष ट्रॉफी है जिसने आम फुटबॉल प्रशंसकों की दिलचस्पी फुटबॉल में बढ़ाया है. आम तौर पर फुटबॉल फैन्स का जुड़ाव अपने राज्य की फुटबॉल टीम से होता है न कि क्लब टीम से. दुर्भाग्य से भारतीय फ़ुटबॉल के बॉस उधार के आइडिया पर खेल चलाते हैं. खास तौर पर यूरोप में क्लब संस्कृति काफी प्रचलित है और इसका कारण यह है कि यहां समृद्ध इतिहास और परंपरा वाले सार्वजनिक क्लबों का वर्चस्व रहा है. ये क्लब 100 से अधिक वर्षों से खेल रहे हैं और आज इनमें से अधिकांश क्लब स्थानीय संस्कृति के अंग बन चुके हैं. कुछ क्लब को छोड़कर भारत में सभी क्लब या तो फ्रेंचाइजी हैं या कॉरपोरेट घरानों का हिस्सा. फुटबॉल फैन्स को फ्रैंचाइज़ी को अपना मानने में कई साल लग जाते हैं. फिर एक ऐसे सिस्टम को क्यों बर्बाद किया जाए जिसकी वजह से बिना अधिक प्रयास के लोगों में स्वतः ही खेल के प्रति रूचि बढ़ रही हो.

इस सदी के शुरुआती दौर में गोवा का डेम्पो स्पोर्ट्स क्लब एक जबरदस्त टीम थी जिसने कई बार नेशनल फुटबॉल लीग (एनएफएल) और आई-लीग सहित हर घरेलू टूर्नामेंट जीता था. जब उन्होंने घरेलू मैदान पर 2004-05 सीज़न में पहली बार इसे जीता था तो क्लाइमेक्स लॉरेंस, क्लिफोर्ड मिरांडा जैसे खिलाड़ियों को देखने के लिए दर्शकों की उपस्थिति के बारे में क्या कहा जाए. 2008-09 में गोवा की टीम चेन्नई से संतोष ट्रॉफी जीतकर अपने सूबे लौटी थी. टीम के लड़कों का अभिवादन करने और जुलूस निकालने के लिए भारी भीड़ उमड़ पड़ी थी . इतनी भीड़ थी कि अनुभवी राजनेता भी ईर्ष्या करने लग जाएं.

फुटबॉल प्रशासकों की वजह से खेल को नुकसान!

भारत में फुटबॉल प्रशासकों की गलत धारणाएं हैं; वे खेल को आम प्रशंसकों से दूर ले जाने के लिए आंशिक रूप से जिम्मेदार हैं. उनकी तरफ से बार बार ये दोहराया जाता है कि आधुनिक फ़ुटबॉल अब केवल एक खेल नहीं रह गया है बल्कि यह एक व्यवसाय है. भारतीय अधिकारी एक और शब्दजाल का इस्तेमाल करते हैं कि फुटबॉल को सफलतापूर्वक चलाने के लिए कॉरपोरेट्स को लाना होगा. ये अधिकारी यह भूल जाते हैं कि फुटबॉल विशुद्ध रूप से एक जुनून है. अगर लोगों का दिल इस खेल से नहीं जुड़ा रहेगा तो ये संरचना ढह जाएगी. यदि बुनियाद कमजोर होगा तो कारोबार भी प्रभावित होगा. कॉरपोरेट्स उन चीजों के बारे में कभी उत्सुक नहीं होंगे जिनमें लोगों की कोई दिलचस्पी नहीं होगी.

मलप्पुरम स्टेडियम में रोजाना आने वाली भीड़ का एक ही एजेंडा था – वे फुटबॉल का एक अच्छा मुकाबला देखना चाहते थे और अंततः स्थानीय टीम को जीतते हुए देखना चाहते थे. उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं थी कि कृत्रिम रोशनी कितनी आधुनिक और महंगी है; कॉरपोरेट बॉक्स में कितने फिल्मी सितारे बैठे थे या टेलीविजन कवरेज कितनी अच्छी थी या अंतरराष्ट्रीय ख्याति के कमेंट्री करने वालों की भाषा पर कितनी पकड़ थी. खैर, ऐसा नहीं है कि इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता है. वे करते हैं, बिल्कुल प्रभाव पड़ता है. लेकिन फुटबॉल के लिए जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण है वो है विशुद्ध जुनून. भारतीय फुटबॉल पिछले कुछ वर्षों से कृत्रिमता का सामना कर रहा था; मलप्पुरम में संतोष ट्रॉफी ताजी हवा का झोंका की तरह था जिसने धुंध को कुछ हद तक साफ कर दिया है.

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