रंजीत भूषण :- भारत इन दिनों एक अजब कूटनीतिक दुविधा में फंसा है. एक तरफ, इसके पश्चिमी सहयोगी, मुख्य रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीय यूनियन हैं, जो यूरोप में छिड़े युद्ध को इंडो-पैसिफिक में नियमों के उल्लंघन से जोड़ने पर तुले हुए हैं. इस तरह वो परोक्ष तरीके से चीन के खिलाफ गुटबंदी करना चाहते हैं जो दक्षिण चीन सागर (South China Sea) पर अपना सिक्का जमाने की जुगत में है और अपनी इस योजना में इतना सफल रहा है कि पश्चिमी देशों को परेशानी होने लगी है.
दूसरी ओर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) और विदेश मंत्री एस जयशंकर (S Jaishankar) की अध्यक्षता वाली उनकी विदेश नीति टीम ये सुनिश्चित करने में लगी है कि दोनों मुद्दों को कहीं से भी जोड़ा नहीं जाए. संदर्भ ये है कि चीन तो एशिया का महाद्वीप का हिस्सा है जबकि रूस और यूक्रेन यूरोप के हिस्से हैं और रूस ने यूक्रेन पर हमला बोल रखा है. चीन का रूस का सहयोगी होना स्थिति को और अधिक जटिल बना रहा है और ये भी माना जा रहा है कि मौन रहकर कहीं चीन रूस की मदद तो नहीं कर रहा है.
भारत को अपनी पसंद की नीति खुद बनानी होगी
नई दिल्ली में अमेरिका और यूरोपीय अधिकारियों के बीच हाल में हुई एक बैठक में मेहमानों ने कथित तौर पर यूक्रेन युद्ध पर भारत के रुख पर खुली नाराजगी व्यक्त की. भारत को तो ये संदेश खुले तौर पर दिया गया है: संयुक्त राष्ट्र चार्टर और नियम-आधारित आदेश पर रूस के स्पष्ट हमले के बावजूद नई दिल्ली ने जो तटस्थता अपनाई है, उससे यूरोप नाखुश है. पिछले कुछ हफ्तों में अमेरिका, यूरोप और यहां तक कि मैक्सिको के हाई प्रोफाइल मेहमानों तक ने भारत को रूस के विरोधी पक्ष में शामिल करने के लिए लुभाने की पूरी कोशिश की है – हालांकि इसमें चीनी विदेश मंत्री वांग यी एक अपवाद रहे, जिनके इरादों में पूरी तरह भारत चीन सीमा बसी हुई थी.
यूरोपीय सहयोगी बेशक नई दिल्ली की मजबूरियों से अनजान नहीं हैं, बावजूद इसके उनकी मांग है कि भारत निष्पक्ष रहने की अपनी नीति बदलकर रूस की स्पष्ट रूप से निंदा करे और अपने इस बदले नजरिए को संयुक्त राष्ट्र में मतदान में बदलाव लाकर कर प्रदर्शित भी करे. पूर्व विदेश सचिव कंवल सिब्बल ने हाल ही में एक साक्षात्कार में मुझसे कहा कि भारत को अपनी पसंद की नीति खुद बनानी होगी और हमारी स्थिति इतनी मजबूत है कि हम किसी के दबाव में आने वाले नहीं हैं.
भारतीय अधिकारियों ने अपने पश्चिमी वार्ताकारों को यह जानकारी दी है कि जब नई दिल्ली के हितों की बात आती है तो यूरोप और अमेरिका की तरह भारत असंवेदनशील नहीं रहता. यही वजह है कि अफगानिस्तान तक में भारत ने पिछले कुछ दशकों में राष्ट्रीय निर्माण उद्देश्यों के लिए 3 अरब डॉलर का निवेश किया है. इस क्षेत्र में उठलपुथल से भारत पर होने वाले प्रभावों से अमेरिका अच्छी तरह वाकिफ था, बावजूद इसके उसने युद्ध से तबाह अफगानिस्तान को भारत के कट्टर दुश्मन पाकिस्तान-चीन के हवाले कर दिया और वहां से चलता बना.
भारत ने एक पक्ष के समर्थन में खड़े होने से परहेज किया
बेशक यह भी नियम-आधारित वैश्विक व्यवस्था के लिए एक खुली चुनौती थी और ऐसे में भारत जैसी दक्षिण एशिया की प्रमुख शक्ति को अकेला छोड़ दिया गया था. इस भारतीय दुविधा के बारे में पूछे जाने पर, यूरोपीय संघ के अध्यक्ष उर्सुला वॉन डेर लेयेन ने द टाइम्स ऑफ इंडिया को बताया कि यूक्रेन में रूस के युद्ध के लिए वैश्विक समुदाय की प्रतिक्रिया परिभाषित करेगी कि भविष्य में अगर कभी अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन होगा तो उससे कैसे निपटा जाएगा और इसमें इंडो-पैसिफिक क्षेत्र भी शामिल है.
कुछ इसी तरह की बात अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने मार्च में कही थी कि क्वाड समूह के देशों में सिर्फ भारत ही ऐसा है जो यूक्रेन पर आक्रमण करने पर रूस के खिलाफ कार्रवाई करने में ‘कुछ हद तक अस्थिर’ है, क्योंकि यह रूस और पश्चिम से अपने संबंधों को संतुलित करके चलने की कोशिश कर रहा है. उन्होंने ये भी कहा कि अच्छी मिसाल बनाने के लिए अन्य क्वाड देशों – संयुक्त राज्य अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया – ने रूसी संस्थाओं या लोगों पर प्रतिबंध लगा दिया है जबकि भारत ने ऐसा कोई कदम नहीं उठाया और यहां तक कि रूस की निंदा भी नहीं की जो कि सैन्य हार्डवेयर का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता है.
लेकिन आप रूस का विरोध न करने के लिए शायद ही भारत को दोषी ठहरा सकते हैं. हाल ही में रायसीना डायलॉग 2022 में, 2016 से हर साल आयोजित होने वाले भू-राजनीति और भू-अर्थशास्त्र पर भारत के प्रमुख सम्मेलन, विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कूटनीतिक रूप से किसी एक पक्ष के समर्थन में खड़े होने से परहेज किया. उनका कहना कि अब समय आ गया है कि भारत वैश्विक समुदाय को खुश करने की कोशिश करने की बजाय अपने आत्मविश्वास के आधार पर दुनिया में अपनी पहचान बनाए.
भारत अकेले खड़े होने को तैयार है
यूक्रेन के विशेष संदर्भ में, जयशंकर ने भारत की ओर से ये बात सही कही है कि किसी विवाद का हल सेना के जरिए नहीं बातचीत के आधार पर निकाला जाना चाहिए. उन्होंने कहा कि यूरोप की मौजूदा स्थिति से निपटने का सबसे अच्छा तरीका लड़ाई को रोकना और बात करने पर ध्यान केंद्रित करना होगा. और यह भी कि नई दिल्ली इस तरह के दृष्टिकोण को आगे बढ़ाने के लिए आदर्श स्थिति में है.
वैसे फरवरी 2022 में हुए भारत-प्रशांत क्षेत्र पर महत्वपूर्ण म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन से ही यह लगभग स्पष्ट था कि भारत की स्थिति अमेरिका के नेतृत्व वाले पश्चिम से अलग होने की रहेगी. यहां भारतीय विदेश मंत्री ने अपने प्रधानमंत्री के मन की बात रखते हुए कहा था कि मुझे नहीं लगता कि इंडो-पैसिफिक और ट्रान्सएटलांटिक में हालात एक जैसे हैं. और जो धारणा आपके सवाल में है कि कहीं न कहीं इसमें कोई समझौता हो रहा है, और चूंकि एक देश पैसिफिक क्षेत्र में कुछ करता है तो उसके एवज में आप कुछ और करें – तो मुझे नहीं लगता कि अंतरराष्ट्रीय संबंध इस तरह से काम करते हैं.
जयशंकर से पूछा गया था कि भारत ने वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर चीन की आक्रामकता पर कैसे चिंता व्यक्त की थी, लेकिन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में यूक्रेन पर वोट से परहेज किया. इस पर उन्होंने दोनों भौगोलिक क्षेत्रों के बीच एक अच्छा अंतर स्पष्ट किया और परोक्ष रूप से इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में समय पर कार्रवाई कर तनाव खत्म नहीं करने के लिए यूरोप को जिम्मेदार भी ठहराया.
पश्चिम से मिलने वाली पुचकार के बावजूद यह स्थिति बनी हुई है. और भारत ने यह पहली बार यह प्रदर्शित नहीं किया है कि वह अकेले खड़े होने को तैयार है. एक प्रकार की शानदार तटस्थता, जिसमें वह किसी विशेष शक्ति गुट का हिस्सा नहीं बना है. कोई आश्चर्य नहीं कि रायसीना डायलॉग 2022 के छह विषयगत स्तंभों में से एक बहुसंस्कृतिवाद का अंत था. और ये भी कि मोदी निश्चित रूप से अपने पत्ते अच्छी तरह खेलना जानते हैं. आखिर जरूरी नहीं कि हर बार आप किसी का पल्लू थाम कर चलें क्योंकि गुटनिरपेक्षता के अपने फायदे हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)