उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने भारतीय न्यायपालिका को दो-टूक शब्दों में चुनौती दे दी है। वे संसद और विधानसभाओं के अध्यक्षों के 83 वें सम्मेलन को संबोधित कर रहे थे। वे स्वयं राज्यसभा के सभापति हैं। आजकल केंद्र सरकार और सर्वोच्च न्यायालय के बीच जजों की नियुक्ति को लेकर लंबा विवाद चल रहा है। सर्वोच्च न्यायालय का चयन-मंडल बार-बार अपने चुने हुए जजों की सूची सरकार के पास भेजता है लेकिन सरकार उस पर ‘हां’ या ‘ना’ कुछ भी नहीं कहती है। सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि सरकार का यह रवैया अनुचित है, क्योंकि 1993 में जो चयन-मंडल (कालेजियम पद्धति) तय हुई थी, उसके अनुसार यदि चयन-मंडल किसी नाम को दुबारा भेज दे तो सरकार के लिए उसे शपथ दिलाना अनिवार्य होता है।
इस चयन-मंडल में पांचों चयनकर्ता सर्वोच्च न्यायालय के जज ही होते हैं। और कोई नहीं होता। इस पद्धति में कई कमियां देखी गईं। उसे बदलने के लिए संसद ने 2014 में 99 वां संविधान संशोधन पारित किया था लेकिन उसे सर्वोच्च न्यायालय ने असंवैधानिक घोषित कर दिया, क्योंकि उसमें जजों के नियुक्ति-मंडल में कुछ गैर-जजों को रखने का भी प्रावधान था। यह मामला तो अभी तक अटका ही हुआ है लेकिन धनखड़ ने इससे भी बड़ा सवाल उठा दिया है। उन्होंने 1973 के केशवानंद भारती मामले में दिए हुए सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को संसदीय लोकतंत्र के विरुद्ध बता दिया है, क्योंकि उस फैसले में संसद के मुकाबले न्यायपालिका को निरंकुश बना दिया गया था। उसे संसद से भी ज्यादा अधिकार दे दिए गए थे। वह किसी भी संसदीय कानून को उलट सकती है। संसद को कह दिया गया था कि वह संविधान के मूल ढांचे को अपने किसी भी कानून से बदल नहीं सकती है। यानी संसद नीचे और अदालत ऊपर। यानी जनता नीचे और जज ऊपर।
संसद बड़ी है या अदालत? धनखड़ ने पूछा है कि जब संसद अदालती फैसले नहीं कर सकती तो फिर अदालतें कानून बनाने में टांग क्यों अड़ाती हैं? संसद की संप्रभुता को चुनौती देना तो लोकतंत्र का अपमान है। अदालत को यह अधिकार किसने दे दिया है कि वह संविधान के मूल ढांचे को तय करे? मैं पूछता हूं कि क्या हमारा संविधान अदालत में बैठकर इन जजों ने बनाया है? केशवानंद भारती मामले में भी यदि 7 जजों ने उक्त फैसले का समर्थन किया था तो 6 जजों ने उसका विरोध किया था। व्यावहारिकता तो इस बात में है कि किसी भी संसदीय लोकतंत्र की सफलता के लिए विधानपालिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के अधिकारों में संतुलन और नियंत्रण बहुत जरूरी है। जहां तक संसद का सवाल है, सीधे जनता द्वारा चुने होने के कारण उसे सबसे अधिक शक्तिशाली होना चाहिए। न्यायाधीशों की नियुक्ति में यदि सरकार और संसद की कोई न कोई भूमिका रहेगी तो वह अधिक विश्वसनीय होगी। बेहतर तो यही होगा कि इस मसले पर भारत के मुख्य न्यायाधीश और प्रधानमंत्री के बीच सीधी और दो-टूक मंत्रणा हो। अन्यथा, यह विवाद अगर खिंचता गया तो भारतीय लोकतंत्र का यह बड़ा सिरदर्द भी साबित हो सकता है।
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
(लेखक, भारतीय विदेश परिषद नीति के अध्यक्ष हैं।)
collegium system
नई दिल्ली । सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने सरकार और उसके मंत्रियों को हिदायत दी कॉलेजियम सिस्टम की आलोचना करते समय संयम बरतें। जजों के चयन का यह सिस्टम फिलहाल देश का कानून है। सरकार को इसका पालन करना होगा। जस्टिस संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली बेंच ने अटार्नी जनरल आर वेंकटरमणी से कहा है कि वे मंत्रियों को सलाह दें कि वे कॉलेजियम सिस्टम पर सोच समझ कर बोले।
अगर ऐसा ही रहा तो देश में हर कोई कहने लग जाएगा कि वह किस कानून का पालन करना चाहता है और किसका नहीं।
सुप्रीम कोर्ट ने 28 नवंबर को अटार्नी जनरल और सॉलिसिटर जनरल से कहा था कि आप लोग सरकार से बात कीजिए और कहिए कि कॉलेजियम की ओर से जिन नामों की सिफारिश की गई है सरकार उन पर फैसला करे। सुनवाई के दौरान कोर्ट ने कहा था कि ऐसा लग रहा है कि नेशनल जुडिशियल अकाउंटेबिलिटी कमीशन (एनजेएसी) को सुप्रीम कोर्ट द्वारा खारिज करने के फैसले से सरकार खुश नहीं है। इसलिए सरकार जजों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम की सिफारिशों पर निर्णय नहीं ले रही है। जस्टिस संजय किशन कौल ने कहा कि समान्यतया मीडिया में दिए गए बयानों (क़ानून मंत्री के बयान के संदर्भ में) का हम संज्ञान नहीं लेते हैं, लेकिन सवाल कॉलेजियम की सिफारिशों पर सरकार द्वारा फैसला नहीं लेने का है। सिस्टम कैसे काम करेगा।
सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन (सीपीआईएल) की ओर से दायर याचिका में कहा गया है कि जजों की नियुक्ति के लिए सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम की ओर से जो अनुशंसाएं की जाती हैं उस पर केंद्र सरकार अनिश्चितकाल तक बैठ जाती है। याचिका में मांग की गई है कि सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने विभिन्न हाई कोर्ट के लिए जजों की नियुक्ति के लिए जिन नामों की अनुशंसा की है उनकी नियुक्ति लंबे समय से केंद्र सरकार ने नहीं की है। यहां तक कि छह हफ्ते बीतने के बावजूद केंद्र सरकार उन अनुशंसाओं पर कोई जवाब भी नहीं देती है। याचिका में कहा गया है कि देश के महत्वपूर्ण संवैधानिक पदों को खाली नहीं रखा जा सकता है। सरकार जजों की नियुक्ति में राजनीतिक हस्तक्षेप करना चाहती है।
नई दिल्ली । सुप्रीम कोर्ट जजों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम सिस्टम को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई करने को तैयार हो गया है। आज वकील मैथ्यू जे नेदुम्परा ने चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली बेंच के समक्ष मेंशन करते हुए कॉलेजियम सिस्टम को चुनौती देने वाली याचिका पर जल्द सुनवाई की मांग की।
चीफ जस्टिस ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट की संविधान बेंच ने कॉलेजियम सिस्टम को सही माना गया है। उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 32 के तहत इसको चुनौती देने वाली याचिका सुनवाई योग्य नहीं हो सकती है। हालांकि चीफ जस्टिस ने कहा कि हम इसकी योग्यता की जांच करेंगे और सुनवाई के लिए सूचीबद्ध करेंगे।
याचिका में कहा गया है कि उच्चतर न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम प्रणाली संविधान की उस भावना के खिलाफ है जिसमें योग्य जजों को नियुक्त करने की बात कही गई है। कॉलेजियम प्रणाली जजों की नियुक्ति में एकाधिकारवादी साबित हो रही है। उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट की संविधान बेंच ने 2015 में कॉलेजियम प्रणाली को सही करार दिया था।