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Raj Thackeray: मराठी के साथ बोले हिंदी, हनुमान चालीसा का उठाया मुद्दा, राज ठाकरे चले अयोध्या, मिलेगा क्या?

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महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे (Raj Thackeray MNS) आज (4 मई, बुधवार) अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस (Raj Thackeray Press Conference) में मराठी के साथ हिंदी में बोले. जो लोग राज ठाकरे को जानते-पहचानते हैं, उनके लिए यह छोटी सी बात, बड़ी सी खबर है. राज ठाकरे कभी मराठी के अलावा किसी और भाषा में बात नहीं करते हैं. याद करें तो उनका आज तक हिंदी में दो ही इंटरव्यू ध्यान में आता है. एक उन्होंने पत्रकार अर्णब गोस्वामी को दिया था और दूसरा उन्होंने रजत शर्मा को दिया था. अर्णब गोस्वामी को दिए गए इंटरव्यू में खास बात यह थी कि उस वक्त वे अंग्रेजी चैनल के संपादक थे और राज ठाकरे मराठी के अलावा किसी और भाषा में बात नहीं करते थे. मामला बीच में सेटल हुआ. हिंदी में इंटरव्यू पूरा हुआ. राज ठाकरे की अब तक पूरी राजनीति मराठी भाषा, मराठी संस्कृति और मराठी माणूस की रही है.

लेकिन आज हिंदी मीडिया के पत्रकारों ने आग्रह किया तो वे हिंदी बोल पड़े. राज की हिंदी सुनते ही वहां मौजूद पत्रकारों की हंसी छूटी. उन्होंने कहा, ‘आज हमारे कार्यकर्ताओं की पुलिस द्वारा जो धड़पकड्या शुरू है.’ इसके बाद वे थोड़ा संभले. फिर उन्होंने अपनी लंबी पीसी में थोड़ा सा अंश हिंदी में दोहराया. उन्होंने बताया कि लाउडस्पीकर का मुद्दा एक दिन का नहीं है. आगे भी जब-जब मस्जिदों से लाउडस्पीकर पर अजान सुनाई देगी तो एमएनएस कार्यकर्ता दुगुनी आवाज में हनुमान चालीसा का पाठ करेंगे.’

हनुमान चालीसा का पाठ क्यों, हनुमान स्त्रोत का पाठ क्यों नहीं?

सवाल है राज ठाकरे ने हनुमान चालीसा का मुद्दा क्यों उठाया, हनुमान स्त्रोत का मुद्दा क्यों नहीं ? बता दें कि हनुमान स्त्रोत मराठी में है, जबकि हनुमान चालीसा अवधी में है. राज ठाकरे का जून के पहले हफ्ते में दो दिनों का अयोध्या दौरा भी है. राज ठाकरे की राजनीति का यह मेजर शिफ्ट समझने की जरूरत है. राज ठाकरे को सुनने और चाहने वाले महाराष्ट्र में मुंबई, ठाणे, पुणे और नासिक में मौजूद हैं. लेकिन मुंबई और ठाणे में काफी तेजी से मराठी माणूस की तादाद कम हुई है. जिन इलाकों में वे परप्रांतीय (उत्तर भारतीय और गैर मराठी) बनाम मूल निवासी के मुद्दे की राजनीति करते आए हैं, उन्हीं इलाकों में उनका वोट बैंक का बेस संकुचित होता चला जा रहा है. मुंबई में तो यह बात साफ हो चुकी है कि यहां मराठी भाषा-भाषी अब एक तरह से अल्पसंख्यक हो चुके हैं.

दस साल में केजरीवाल के राज्य एक से हुए दो, लोग राज से पूछते हैं- आप वहीं पे हो?

वैसे भी राज ठाकरे की शख्सियत के दम पर उनकी पार्टी का अस्तित्व है. उनकी पार्टी को आगे बढ़ाने के लिए कोई थिंक टैंक नहीं है. दिल्ली के मुख्यमंत्री ने अन्ना हजारे के आंदोलन से राजनीति शुरू की. उनकी पार्टी ने आज पंजाब में भी सरकार बना ली. गुजरात से लेकर गोवा तक और हरियाणा से लेकर हिमाचल तक आम आदमी पार्टी अपना दायरा बढ़ा रही है. राज ठाकरे की पार्टी का आज एक भी सांसद नहीं है. महाराष्ट्र से बाहर तो छोड़िए, वे महाराष्ट्र में ही पूरी तरह से फैल नहीं पाए हैं. ऐसे में वे एक स्टार प्रचारक की तरह भीड़ तो जुटा पा रहे हैं, लेकिन पार्टी को नहीं बढ़ा पा रहे हैं. केजरीवाल के पास आम आदमी का बिजली-पानी-शिक्षा का मुद्दा है. राज ठाकरे के पास मराठी माणूस का मुद्दा है. लेकिन वो तो शिवसेना का भी मुद्दा है. राज ठाकरे ने अब हिंदुत्व का मुद्दा उठाया है. लेकिन क्या शिवसेना ने हिंदुत्व के मुद्दे से अपना दावा हटाया है?

पहले मराठी माणूस और अब हिंदू, जैसा पहले हो चुका है, हो रहा है हूबहू

राज ठाकरे अब जून में अयोध्या जा रहे हैं. लेकिन अयोध्या जाकर वे कहीं पहुंच नहीं पा रहे हैं. राज की नई राजनीति से बीजेपी को निश्चित फायदा होने जा रहा है. शिवसेना को निश्चित नुकसान होने जा रहा है. राज को क्या मिलने जा रहा है? बालासाहेब ठाकरे की राजनीति भी इसी तरह शुरू हुई थी. उन्होंने पहले ‘लुंगी हटाओ, पुंगी बजाओ’ का नारा दिया. साठ-सत्तर के दशक में तमिल भाषी (जिन्हें तब मद्रासी कहा जाता था) लोग नौकरियों और छोटे-मोटे उद्योगों में बड़ी तादाद में घुस गए थे. ऐसे में बालासाहेब ने मराठी लोगों को रोजगार, उनके अधिकार और संस्कृति का मुद्दा सामने किया. आगे चलकर मद्रासी बनाम मराठी की यह लड़ाई उत्तर भारतीय बनाम मराठी के रूप में तब्दील हो गई. लेकिन इससे आगे क्या? फिर अपनी पार्टी का बेस बढ़ाने के लिए बालासाहेब ठाकरे ने हिंदुत्व की राजनीति शुरू की और हिंदू हृदय सम्राट बने. राज ठाकरे ‘महाजनो येन गत: सह पंथा’ के तर्ज पर अब बालासाहेब ठाकरे की स्टाइल की कॉपी करते-करते रणनीति की कॉपी भी कर रहे हैं. लेकिन युग बदल चुका है.अपना स्पेस क्रिएट करना है तो नए आइडियाज भी जेनरेट करने होंगे.

बीजेपी के गेम में राज ठाकरे का स्टेक क्या है? फायदा स्ट्रेट क्या है

शिवसेना का लगातार यह आरोप रहा है कि राज ठाकरे का यह पॉलिसी शिफ्ट बीजेपी की ओर से रचा गया जाल है. बातों में सच्चाई भी है. राज ठाकरे अपनी हिंदुत्व वाली राजनीति में आगे बढ़ते हैं तो इससे बीजेपी के उत्तर भारतीय, हिंदी, हिंदू, गुजराती वोट बैंक को नुकसान नहीं होना है. बीजेपी का गुजराती, उत्तरभारतीय वोट बैंक मजबूत है. वो राज ठाकरे की ओर शिफ्ट नहीं होने वाला है. लोगों ने राज ठाकरे की परप्रांतीय लोगों के खिलाफ नफरत की राजनीति को नहीं भुलाया है. इसी वजह से बीजेपी ने एमएनएस के साथ प्रत्यक्ष रूप से हाथ नहीं मिलाया है. बस बैक डोर से बैकिंग शुरू है.

दरअसल राज के इस नए हिंदुत्व अवतार से नुकसान सीधे-सीधे शिवसेना को है. राज ठाकरे अपनी पार्टी के लिए भले ही एक सांसद तक नहीं जितवा पाए हैं, लेकिन शिवसेना के मराठी वोट बैंक को अच्छा खासा प्रभावित किया है. बीजेपी चाह रही है कि राज ठाकरे के नए हिंदुत्व के अवतार से शिवसेना के हिंदू वोट बैंक में सेंध लगाई जाए. यही वजह है कि राज ठाकरे मस्जिदों से लाउडस्पीकर उतारने का मुद्दा उठा रहे हैं और अयोध्या जा रहे हैं.

राज ठाकरे के पास यह आखिरी रास्ता है, और रास्ता भी क्या है?

जब से शिवसेना ने कांग्रेस और एनसीपी के साथ हाथ मिला लिया है, उनके हिंदुत्व पर सवाल उठाने का बीजेपी को मौका मिल गया है. कई ऐसे मुद्दे हैं जिन पर शिवसेना पहले आक्रामक रहा करती थी, अब मौन है. लाउडस्पीकर का मुद्दा भी खुद बालासाहेब ठाकरे ने उठाया था. आज शिवसेना इसके खिलाफ खड़ी है. औरंगाबाद का नाम औरंगजेब के नाम पर क्यों है? इसका विरोध शिवसेना भी करती रही है. लेकिन आज चुप खड़ी है. राज ठाकरे लगातार इसे संभाजी नगर कह कर महापालिका चुनाव का मुद्दा गरमा रहे हैं. यानी शिवसेना ने सेक्यूलर पार्टियों के साथ हाथ मिला कर जो वैक्यूम क्रिएट किया है. उसे भरने के लिए राज ठाकरे ने कदम आगे बढ़ा दिया है.

BJP और MNS दोनों को पार्टनर की तलाश है, राज के हिंदुत्व मिशन के पीछे यही एक राज़ है

लेकिन इससे राज ठाकरे को फायदा होने की बजाए नुकसान ही होता दिखाई दे रहा है. सवाल उनकी क्रेडिबिलिटी का है. 2014 से पहले वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कट्टर समर्थक के तौर पर सामने आए. फिर वे बीजेपी के विरोधी हो गए. अब फिर बीजेपी के साथ सुर मिला रहे हैं. यानी लगातार मुद्दे बदल रहे हैं, झंडे के रंग बदल रहे हैं, कहीं टिक ही नहीं पा रहे हैं.पर राज जाएं भी तो जाएं कहां? अटक गए हैं. फंस गए हैं. जिस गठबंधन में शिवसेना, वहां उन्हें जगह मिलेगी कहां? इधर बीजपी भी शिवसेना के रूप में अपना पार्टनर खो चुकी है और राज को भी पार्टनर की तलाश है. राज के नए हिंदुत्व मिशन के पीछे बस यही एक राज़ है.

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