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जूनियर वर्ल्ड में हर्षदा के स्वर्ण तक पहुंचने के तीन कारण – पसीना, परिश्रम और बलिदान

by

अमित कामथ

हर्षदा शरद गरुड़ (Harshada Sharad Garud) सोमवार को आईडब्ल्यूएफ जूनियर विश्व चैंपियनशिप में स्वर्ण जीतने वाली पहली भारतीय भारोत्तोलक बन गईं. ग्रीस की पोर्ट सिटी हेराक्लिओन में जब हर्षदा शरद गरुड़ पहली बार 64 किलोग्राम स्नैच के लिए आगे बढ़ी तो महाराष्ट्र के वडगांव मावल में करीब सौ स्मार्टफोन स्क्रीन के साथ चेहरे उम्मीद से जगमगा उठे. हर्षदा के कोच बिहारीलाल दुबे ने यह सुनिश्चित किया कि छोटे से शहर में हर्षदा को जानने वाले हर शख्स के पास यूट्यूब के लाइव स्ट्रीमिंग का लिंक हो. ऐसा कम ही होता है कि उनका कोई अपना विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धा में हिस्सा ले रहा हो. हर्षदा ने भी निराश नहीं किया. सोमवार को वह आईडब्ल्यूएफ जूनियर विश्व चैंपियनशिप (IWF Junior World Championships) में स्वर्ण जीतने वाली पहली भारतीय भारोत्तोलक (Weightlifting) बन गईं. उन्होंने स्नैच में 64 किग्रा, 67 किग्रा और 70 किग्रा और क्लीन एंड जर्क में 78 किग्रा, 81 किग्रा और 83 किग्रा भार उठाकर सभी प्रयासों में स्वर्ण जीतने लायक प्वाइंट अर्जित कर लिया.

18 साल की हर्षदा का कुल प्रयास 153 किग्रा (स्नैच में 70 किग्रा और क्लीन एंड जर्क में 83 किग्रा) था जो कि तुर्की के बेकटास कांसु की टक्कर में स्वर्ण जीतने के लिए काफी था. बेकटास कांसु ने 150 किग्रा (65 किग्रा और 85 किग्रा) का समग्र प्रयास किया था. इस स्वर्ण ने उन्हें इस इवेंट में खिताब जीतने वाली पहली भारतीय भारोत्तोलक बना दिया जहां पर मीराबाई चानू (2013 में कांस्य), झिल्ली दलबेहेरा (2018 में कांस्य) और अचिंता शुली (2021 में रजत) स्वर्ण जीतने के करीब आ गई थीं.

हर्षदा अस्प्ताल में 10 दिन तक भर्ती रही थीं

वडगांव मावन से एक्शन देखने वालों में हर्षदा के पिता शरद भी थे जिनका मन कुछ महीने पहले ही हर्षदा की स्थिति देख कर सिहर उठता था. ‘फूड प्वाइजनिंग के कारण हर्षदा ने अस्पताल में तब करीब 10 दिन बिताए. उसकी वजह से उसे विश्वविद्यालय स्तर की प्रतियोगिता से बाहर होना पड़ा. मैंने नहीं सोचा था कि वह इस आयोजन में भी हिस्सा ले पाएगी. अस्पताल में भर्ती होने ने उसकी तैयारी को कम से कम एक महीना पीछे धकेल दिया. लेकिन इस आयोजन में जाने से पहले उसने मुझसे कहा था कि वह जूनियर वर्ल्ड में स्वर्ण पदक नहीं खोएगी. उस बड़े झटके के बावजूद उसने ठीक वही किया जो उसने मुझसे कहा था. यही चीज मुझे खुशी देती है, ‘शरद कहते हैं, जो नगर पंचायत के जल विभाग में पर्यवेक्षक के रूप में काम करते हैं.

वडगांव मावल पुणे के पास एक छोटा सा शहर है जहां से दो तरह के एथलीट लगातार निकलते रहते हैं: लंबी दूरी के धावक और भारोत्तोलक. ‘हम कम दूरी की स्प्रिंट स्पर्धाओं में धावकों को प्रशिक्षित नहीं कर सकते क्योंकि हमें ऐसा करने के लिए दौड़ने का ट्रैक नहीं मिलता. फिर भरित्तोलक ही बचते हैं. यहां जीवन काफी संघर्षमय होता है. लेकिन अगर आप संघर्ष नहीं करते हैं, तो आप सफल नहीं होते हैं. मुख्य रूप से हम यही करते हैं यहां. हम मानसिकता पर भी उतना ही काम करते हैं जितना हम वजन उठाने की तकनीक और वजन उठाने के लिए शरीर को मजबूत बनाने पर काम करते हैं,’ दुबे गुरुकुल को चलाने वाले बिहारीलाल दुबे बताते हैं जहां हर्षदा प्रशिक्षण लेती है.

हर्षदा का सफर प्रेरणादायी है

‘हर्षदा एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार से आती हैं. मराठी में एक कहावत है, ‘स्वतः पोताला चिम्ता घेयुं टीला पूर्ववत’ (दूसरों को खिलाने के लिए अपना पेट काटने वाले) जो यह बताती है कि हर्षदा का परिवार कैसे जीवन यापन करता है. इसीलिए वह भरपूर पसीना बहाने और मेहनत करने को तैयार रहती है. ऊपर से वह ऐसी है जो चीजों को जल्दी से समझ लेती है. आप उसे प्रशिक्षण में एक बात बताते हैं और वह दो बार बताए बिना इसे दुहरा कर दिखा देगी. इसलिए पिछले कुछ महीनों में ही राष्ट्रीय स्तर के शिविर में प्रशिक्षण लेते हुए उसकी वजन उठाने की क्षमता सात से आठ किलोग्राम बढ़ गई, दुबे कहते हैं.

वडगांव मावल में चार और व्यायामशालाएं हैं. दुबे गर्व से दावा करते हैं कि सभी व्यायामशालाओं के प्रशिक्षकों को उन्होंने ही प्रशिक्षित किया है. वेट लिफ्टिंग सिखाने वाले जिम्नाजियमों के तेजी से वातानुकूलित होने की धारणा पर दुबे हंसते हैं. ‘यह एक छोटा सा शहर है. हमारे यहां पांच छोटी व्यायामशालाएं हैं, जिनमें एक मेरा भी है. मैं अपने जिम में चार लिफ्टिंग प्लेटफॉर्म पर लगभग 25 बच्चों को प्रशिक्षित करता हूं, यहां कभी-कभी इतनी गर्मी होती है कि आप उसे बर्दाश्त नहीं कर सकते. लेकिन जो कुछ भी है, इस व्यायामशाला को हमने जमीन से ईंट से ईंट जोड़कर बनाया है,’ वे कहते हैं.

एक पीढ़ी पहले, हर्षदा के पिता ने भी दुबे के व्यायामशाला में प्रशिक्षण लिया था. मगर पिता की मृत्यु होने के बाद सबसे बड़े बेटे के रूप में परिवार की देखभाल करने की जिम्मेदारी उन पर आ गई और वेटलिफ्टिंग छोड़ना पड़ा. लेकिन जब उन्होंने अपनी बेटी में स्कूल के दिनों में ही बेहतर भरोत्त्तोलक की क्षमता देखी तो वो बेटी को वहां ले गए जहां उन्हें उम्मीद थी कि वो उनकी बेटी की प्रतिभा को निखार देंगे. दुबे कहते हैं, ‘जब मैंने उसे पहली बार हर्षदा को देखा तो मैंने पकड़ लिया था कि उसमें एक भारोत्तोलक बनने के सभी गुण मौजूद हैं. इसलिए मैंने उसे एक धावक बनने की जगह वेटलिफ्टिंग पर ही ध्यान केंद्रित करने के लिए कहा.’ सोमवार को छह कोशिश के साथ हर्षदा ने न केवल अपने परिवार के बलिदान का ऋण चुकाया बल्कि अपने छोटे से शहर को भी अंतरराष्ट्रीय मानचित्र पर ला खड़ा किया.

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