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जब एक मुसलमान हारता है तो कोई हिंदू नहीं जीतता

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मेजर जनरल (रि.) अशोक कुमार :- वैसे तो राष्ट्र (Nation) की कई परिभाषाएं हो सकती हैं. मगर सभी में कुछ चीजें समान होती हैं. एक राष्ट्र को ऐसे लोगों के समुदाय के रूप में परिभाषित किया जाता है जिन्होंने अपने अस्तित्व के दौरान एक जैसी विशेषताओं को साझा किया हो – चाहे वह भाषा, इतिहास, जातीयता, संस्कृति और/या क्षेत्र हो. भारत एक ऐसा राष्ट्र है जिसके लोगों के बीच काफी ज्यादा विविधता है. इसे राष्ट्र को विभाजित करने और कमजोर करने के बजाय राष्ट्र के ताने-बाने को और मजबूत करने में इस्तेमाल करना चाहिए.

वैसे हमारे समाज में कई तरह के दोष अनादि काल से चले आ रहे हैं जो अलग-अलग अभिव्यक्ति के साथ मौजूद हैं. मगर कुछ घटनाएं ऐसी हैं जो हमारे सामने नई चुनौतियां खड़ी कर रही हैं. इन चुनौतियों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है और सकारात्मक समाधान की सख्त जरूरत है.

हाल ही में एक कार्यक्रम के दौरान भारतीय सेना (Indian Army) के जम्मू पीआरओ ने रमजान (Ramadan) के महीने में इफ्तार समारोह में हिस्सा ले रहे सेना के जवानों की तस्वीर ट्वीट की तो कई लोगों ने उस पर प्रतिकूल टिप्पणी की. अधिकारी ने संभवत: सोशल मीडिया डोमेन के दुष्परिणाम में शामिल नहीं होने के उद्देश्य से उस ट्वीट को अपनी व्यक्तिगत स्तर पर डिलीट कर दिया. ट्वीट को डिलीट करने पर भी कुछ लोगों ने उसे फॉलो किया और भारतीय सेना को अनावश्यक रूप से इस मामले में घसीटा. इससे सभी धर्मों के लिए सेना का साझा सम्मान और लोगों के साथ रहने की आवश्यकता पर सवाल उठने लगे.

संवाद स्थापित करके मामले का निपटारा होना चाहिए

जम्मू-कश्मीर में स्थानीय लोगों के साथ प्रार्थना में भाग लेने वाले भारतीय सेना के वरिष्ठ अधिकारियों की तस्वीरों वाले एक ट्वीट के साथ सेना की ओर से यह बड़ा कदम था. सेना देश भर में सभी धर्मों के कार्यक्रमों में हिस्सा लेती रही है और सीमावर्ती लोगों के दिल और दिमाग को जीतने की कोशिश अधिक सक्रियता के साथ करती रही है. सभी इकाइयों में ‘सर्व धर्म स्थलों’ की प्रथा धार्मिक समानता और सम्मान का प्रतीक है जहां कोई भी धर्म कभी दूसरे के खिलाफ खड़ा नहीं होता है और सभी सैनिक अपनी व्यक्तिगत आस्था के बावजूद हमेशा राष्ट्र के सैनिक के रूप में ही काम करते हैं.

इतना ही नहीं, हाल ही में बीएचयू वाराणसी में कुलपति के मुस्लिम छात्रों और कर्मचारियों के साथ इफ्तार में शामिल होने को लेकर विवाद खड़ा हो गया. छात्रों का एक वर्ग विरोध पर उतारू हो गया. हालांकि इसमें कोई संदेह नहीं है कि हर तरह की धार्मिक भागीदारी सभी को सम्मान देने के लिए होनी चाहिए, चुनिंदा लोगों के लिए नहीं. सभी संस्थानों में भागीदारी के तौर-तरीकों के संदर्भ में एक मानदंड मौजूद होना चाहिए जिस पर सभी सहमत हों. यह छात्रों, शिक्षकों और प्रशासनिक अधिकारियों के बीच चर्चा के बाद तय किया जाना चाहिए. अगर ऐसा कोई तंत्र मौजूद नहीं है और कुछ लोग अनुचित व्यवहार के बारे में सोचते हैं तो संवाद स्थापित करके मामले का निपटारा होना चाहिए. इसे एक संस्थागत रूप दे देना चाहिए.

राष्ट्र एक नाव की तरह है और देश के सभी लोग नाव की सवारी कर रहे हैं. जिस पर कम या ज्यादा लेकिन सभी लोगों के लिए जगह है. नाव का सुचारू रूप से चलना इस बात पर निर्भर करता है कि न सिर्फ यात्रा करने वाले प्रत्येक व्यक्ति अपना संतुलन बनाए रखें, बल्कि दूसरे यात्रियों के साथ भी तालमेल बिठा कर रखें. नहीं तो सामंजस्य के अभाव में नाव डूब जाएगी. इतना ही नहीं, नाव के प्रत्येक सवार को अपने पास नाव की तलहटी में कोई छेद नहीं करना चाहिए, क्योंकि इससे न केवल वह हिस्सा जिस पर वह बैठा है बल्कि पूरी की पूरी नाव ही डूब जाएगी.

हमें गरीबी, भूख और कुपोषण जैसी चुनौतियों को मिटाने पर ध्यान देना है

इस तरह के संघर्षों में, चाहे वे इफ्तार से संबंधित हों या दूसरे कार्यों से; जब एक मुसलमान हारता है तो याद रखें कि कोई हिन्दू विजेता नहीं होता. विजेता चीनी, पाकिस्तानी और वे सभी होते हैं जो भारत को उसके गौरव की ओर बढ़ते हुए नहीं देखना चाहते. मुसलमान भी नहीं हारते, देश हारता है. वास्तव में, सभी धर्मों के बीच या दूसरे संघर्ष में हम में से कोई नहीं जीतता मगर हारने वाला हमेशा देश होता है और विजेता हमेशा विरोधी होते हैं. जिस नाव को वे बाहरी ताकतों का उपयोग करके डुबाना चाहते थे, वो खुद अपनी आंतरिक ताना-बाना टूटने के कारण डूब जाती है.

चुनौती तब और बढ़ जाती है जब हमारे शैक्षणिक संस्थानों में ऐसी गतिविधियां होती हैं. हमारा मुख्य विरोधी चीन लगातार तकनीकी प्रगति कर रहा है और संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ अंतर को दिन-ब-दिन कम कर रहा है. ऐसे में हमारे भी सभी शैक्षिणिक संस्थानों को अपनी पूरी ऊर्जा के साथ अद्वितीय आउटपुट देना चाहिए न कि पीछे हट कर हमारे विरोधियों के काम को आसान बनाने में. हमारे शैक्षणिक संस्थानों को भी इन उग्र विरोधों के कारणों का आलोचनात्मक विश्लेषण करना चाहिए और इससे पहले कि कोई ‘राष्ट्रीय नाव’ के अपने हिस्से में छेद करे उसकी चिंता को दूर करने के लिए संवाद तंत्र स्थापित किया जाना चाहिए नहीं तो ‘पूरी नाव’ ही डूब जाएगी.

आने वाला समय काफी चुनौतीपूर्ण है. लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल (LAC) पर चीन के सैनिकों की घुसपैठ को लेकर भारतीय सेना आमने-सामने खड़ी है. रूस-यूक्रेन युद्ध, कोरोना महामारी, कच्चे तेल की बढ़ती कीमतों और सप्लाई चेन टूटने के कारण भारत सहित लगभग हर देश पर बुरा प्रभाव पड़ा है. ऐसे में यह पहले से भी अधिक महत्वपूर्ण हो गया है कि हम अपने राष्ट्र की बहु-भाषाई, बहु-जातीय और बहु-धार्मिक पहचान को मजबूत करें ताकि पूरे राष्ट्र की क्षमता देश की भलाई के लिए प्रेरित हो.

यह बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है कि हममें से हर एक शख्स नाव के अपने साइड की देखभाल करे और गरीबी, भूख और कुपोषण जैसी चुनौतियों को मिटाने के लिए काम करे जिससे हम संतुलन और सदभाव बनाते हुए विकास की लहरों की सवारी कर सकें. अकादमीय संस्थान को सामान्य रूप से मानवता और खास तौर पर हमारे महान देश के लिए नई खोज करनी चाहिए. यानी नाव डूबनी नहीं चाहिए. हमारा सामाजिक ताना-बाना अगर सद्भाव के साथ बुना जाए तो हमारे विरोधी हमारे दोषों का फायदा उठाने में सक्षम नहीं होंगे. आइए हम सभी अपने धार्मिक विश्वासों के बावजूद जीतें और हारें केवल हमारे विरोधी.

(लेखक सेना के (रि.) मेजर जनरल हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)

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